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________________ ७४ संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन (२) द्वितीया कारकविभक्ति-( क ) सभी प्रकार के अनिभिहित कर्मों में द्वितीया विभक्ति होती है (२।३।२) । जैसे-घटं करोति (निर्वर्त्य) । स्वर्ण कुण्डलं करोति (विकार्य) । ग्रामं गच्छति (प्राप्य) । विषं भुङ्क्ते (द्वेष्य) । ग्रामं गच्छन् तृणं स्पृशति (उदासीन)। गां दोग्धि पयः ( अकथित ) । स्वर्गमध्यास्ते ( अन्यपूर्वक )। (ख ) कतिपय प्रयोज्य कर्ताओं में भी कर्म-कारक मानकर ( १।४।५२-५३ ) द्वितीया विभक्ति होती है। यह भी अन्यपूर्वक कर्म है, किन्तु स्पष्टीकरण के लिए पृथक् विन्यास किया जाता है-विप्रं ग्रामं गमयति । शिशुं शाययति । भृत्यं ( भृत्येन वा ) भारं हारयति । उपपदविभक्ति --( क ) अन्तरा, अन्तरेण ( २।३।४ ), उभयतः, सर्वतः, धिक्, उपरि आदि ( = अधः, अधि ) की द्विरुक्ति होने पर यावत्, अभितः, परितः, समया, निकषा, हा, प्रति, विना--इत्यादि अव्ययों के साथ द्वितीया होती है। (ख ) कालवाचक तथा अध्ववाचक शब्दों में द्वितीया होती है, यदि अत्यन्तसंयोग ( व्याप्ति ) का बोध हो; यथा-मासं कल्याणी, क्रोशं कुटिला नदी। मासमधीते, क्रोशमधीते - इत्यादि में सकर्मक धातुओं के साथ भी व्याप्ति के अर्थ में उदाहरण होते हैं । अर्थ है-मासं व्याप्याधीते। 'मासमास्ते, मासं तिष्ठति' में अकर्मक धातुओं के योग में वार्तिककार ने देश, काल, भाव तथा गन्तव्य मार्ग को कर्मसंज्ञा मानकर द्वितीया का विधान किया है। अतएव वह कारकविभक्ति है। 'कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे' ( २।३।५ ) से होनेवाली पूर्वोक्त द्वितीया उपपदविभक्ति ही व्यवस्थित होती है। 'मासं व्याकरणं पठति' कहें या केवल 'मासं पठति' दोनों में मासगत उपपदविभक्ति ही है । अकर्मक धातुओं के साथ कालादि के कर्मत्व की उपपत्ति शास्त्र ( वार्तिक ) से होती है । वास्तव में 'कालाध्व०' सूत्र के उदाहरणों में 'यावत्' गम्यमान रहता है—मासं ( यावत् ) काव्यं पठति । नागेश यहाँ व्यापकत्व को द्वितीया का अर्थ मानते हैं । इसी प्रकार 'एकादशीमुपवसन्ति' एकादशी-तिथि की व्याप्तिपर्यन्त उपवास का विधान है । अकर्मक धातु होने से काल को कर्मसंज्ञा हुई है तथा यह कारकविभक्ति है । अथवा 'यावत्' की गम्यमानता से प्रस्तुत सूत्र द्वारा भी विभक्ति विधेय है। (ग ) कर्मप्रवचनीयों के योग में सामान्य रूप से द्वितीया होती है ( २।३।८)। इसके कई अपवाद भी हैं। पाणिनि ने 'अनुर्लक्षणे' (१।४।८४ ) से 'अधिरीश्वरे' ( २।४।९७ ) तक कर्मप्रवचनीय-संज्ञक अनु, उप, अप, परि, आङ्, प्रति, अभि, अधि, सु, अति, अपि-इन शब्दों का अर्थसहित उल्लेख किया है। इनमें आधिक्यार्थक शब्दों के योग में सप्तमी ( अधि रामे भूः, अधि भुवि रामः--२।३।९) तथा अप, आङ्, परि के योग में पञ्चमी होती है । शेष शब्दों में द्वितीया विहित है-जपमनु प्रावर्षत् । वृक्षं प्रति । १. ल० म०, पृ० १३३९ ।
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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