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________________ कारक तथा विभक्ति ७३ कृत विभक्त्यर्थ-निर्णय' इत्यादि । प्रस्तुत अध्याय में हम इसी सन्दर्भ में विभक्ति शब्द का ग्रहण करते हुए यह कहते हैं कि विभक्ति के द्वारा कारक तथा उपपद-ये दोनों वाक्य-सम्बन्ध प्रकट होते हैं। इन सम्बन्धों को प्रकट करनेवाली विभक्तियाँ भी क्रमशः कारकविभक्ति तथा उपपदविभक्ति कहलाती हैं। इन विभक्तियों के सात भेद हैं जिन्हें पाणिनि ने तीन वचनों के गणों में रखा है-(१) प्रथमा-- सु औ जस् । (२) द्वितीया-अम् औट शस् । ( ३ ) तृतीया-टा भ्याम् भिस् । ( ४ ) चतुर्थी-डे भ्याम् भ्यस् । (५) पञ्चमी-इसि भ्याम् भ्यस् । ( ६ ) षष्ठी-ङस् ओस् आम् । (७) सप्तमी-ङि ओस् सुप् (पा० सू० ४।१।२)। सभी प्रातिपदिकों से इन विभक्तियों का विधान होता है। इन्हें ही प्रत्याहारत: ‘सुप्' कहा जाता है । विभक्तियों के दो रूप : कारकविभक्ति तथा उपपदविभक्ति ___ सुप्-प्रत्ययों ( विभक्तियों ) के अर्थ के विषय में पाणिनि-व्याकरण में विशद विचार हुआ है । विभिन्न विभक्तियों के विषय में प्रमुख नियम निम्नलिखित हैं (१) प्रथमा कारकविभक्ति-अभिधानमात्र में प्रथमा विभक्ति होती है, चाहे कोई भी कारक हो। यथा-ज्वलत्यग्निः ( कर्ता ), पच्यते ओदनः ( कर्म ), स्नानीयं चूर्णम् ( करण ), दानीयो विप्रः ( सम्प्रदान ), भीमो राक्षसः ( अपादान ), आसनं पीठम् ( अधिकरण )। इसीलिए पाणिनि ने प्रातिपदिकार्थमात्र में प्रथमा का विधान किया है ( २।३।४६ ), जिसके अनुसार सत्ता, लिंग, परिमाण या वचन मात्र में प्रथमा होती है-उच्चैः, कुमारी, द्रोणः, एकः । इन सबों में अभिहितकर्ता है, जो गम्यमान अस्त्यादि-क्रिया से सम्बद्ध है। यदि कोशादि ग्रन्थों में क्रिया-विरहित रूप में प्रथमा का प्रयोग हो तो इसे उपपदविभक्ति कहा जा सकता है। ___ अभिधान के कई साधन हैं; जैसे-तिङ् ( क्रियते कट: ), कृत् ( कृतः कट: ), तद्धित ( शतेन क्रीतः शत्यः ) तथा समास (प्राप्तोदको ग्रामः)२ । कभी-कभी निपातशब्दों के द्वारा भी अभिधान देखा जाता है--विषवृक्षोऽपि संवयं स्वयं छत्तुमसाम्प्रतम्' ( कुमारसंभव २।५५ ), 'क्रमावमुं नारद इत्यवोधि सः' ( शिशु० १।३ )। किन्तु यह नियम सार्वत्रिक नहीं है-'परिणतिमिति रात्रे गधा माधवाय प्रणिजगदुः' ( शिशु० ११।१)। उपपदविभक्ति--( क ) सम्बोधन में प्रथमा विभक्ति होती है-हे राम ! ( ख ) सम्बन्ध के भी अभिहितं होने पर प्रथमा होती है; यथा--गोमान् रामः ( गावो देवदत्तस्य )। १. 'इह खलु सर्वेषां विभक्त्यर्थानां भवत्यन्वयः इति विभक्त्यर्थो निरूप्यते । तत्र कारकाकारकभेदात्स द्वधा'। -विभक्त्यर्थनिर्णय, पृ० १ २. काशिका २।३।१। ३. रभसनन्दि, कारकसम्बन्धोद्योत, पृ० ४-६ ।
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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