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________________ ५२ संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन विप्रतिपत्तियां हैं । न्याय, मीमांसा आदि शास्त्रों में तिङ् प्रत्ययों को आख्यात कहा जाता है, किन्तु व्याकरण में यास्क की परम्परा के अनुसार धातु तथा तिङ् दोनों का संयुक्त रूप ( तिङन्त ) होने पर उसे आख्यात कहते हैं । फिर भी पूर्वोक्त शास्त्रों में आख्यातार्थ-निरूपण में तिङ के ही अर्थ का विचार होता है। मीमांसक-प्रवर मण्डनमिश्र के अनुसार फल धात्वर्थ है तथा व्यापार आख्यातार्थ । इसकी विस्तृत समीक्षा ऊपर की जा चुकी है। नैयायिक लोग कृति को आख्यातार्थ मानते हैं । कृति का अर्थ है-प्राणधारी का प्रयत्न । तदनुसार क्रियाओं का सामान्य सम्बन्ध 'करोति' से है, जिन्हें सम्पादित करनेवाला अवश्य ही कोई प्राणधारी होना चाहिए; यथा--चैत्रः ओदनं पचति । इस प्रकार सभी क्रियाओं का प्राणधारी से सम्बन्ध रहने के कारण क्रियागत व्यापार को धारण करनेवाले कर्ता में प्राणित्व आवश्यक है। मोटर जा रहा है, फूल खिलता है-ऐसे वाक्यों में अप्राणी पर कर्तृत्व का लाक्षणिक प्रयोग उन्हें मानना पड़ता है। वैयाकरणों को अमान्य है कि अचेतन कर्ता नहीं हो सकता। इसका विशद विवेचन हम कर्ता-कारक की विवेचना वाले अध्याय में करेंगे। न्याय के इस विचार का बीज उनके कारणतावाद में है। उनके अनुसार संसार के परमाणुओं में गति नहीं है । जब तक ईश्वर या अदृष्ट की बाह्य-शक्ति से क्रिया का ग्रहण नहीं होता, उनमें गति नहीं आती। अप्राणी में गति बाहर से ही आती है, क्योंकि केवल आत्मा में ही गति होती है। वैशेषिक-दर्शन में उत्क्षेपणादि कर्मों की पृष्ठभूमि में इसीलिए आत्मा का सम्बन्ध बतलाया गया है। उत्क्षेपण-कर्म में 'मुशलमुत्क्षिपामि' इस इच्छा से जनित प्रयत्न द्वारा प्रयत्नयुक्त आत्मा के संयोगरूप असमवायिकारण से हाथ में उत्क्षेपण-क्रिया होती है । तब उत्क्षेपण से विशिष्ट हस्तनोदन रूप असमवायिकारण से मुशल में भी उत्क्षेपण उत्पन्न होता है । जहाँ इच्छा या प्रयत्न कारण न हो किन्तु संस्कारमात्र से मुशल ऊपर उठता हो, वहाँ लाक्षणिक रूप से उत्क्षेपण का व्यवहार होता है । इसी प्रकार अनुलोम-प्रतिलोम वायु के संघर्ष से तृणादि पदार्थ का अथवा दो जलधाराओं के संघर्ष से जल का उछलना भी लाक्षणिक रूप से उत्क्षेपण है। नैयायिकों के द्वारा स्वीकृत 'कृति आख्यातार्थ है' इस सिद्धान्त का सीधा सम्बन्ध कर्ता के चैतन्य से है । अचेतन के कर्तृत्व में उन्हें निरूढ लक्षणा माननी पड़ती है । १. 'आख्यातपदेन तिङन्तस्यैव ग्रहणम्'—इसमें यास्क का 'भावप्रधानमाख्यातम्' तथा पाणिनि-तंत्र का 'आख्यातमाख्यातेन क्रियासातत्ये' ( गणसूत्र ) प्रमाण है। -५० ल० म०, पृ० १०९ २. 'जीवनयोन्यादिनिखिलयत्नगतं यत्नत्वमेव तिङः शक्यतावच्छेदकम् । -शब्दशक्तिप्रकाशिका, का० ९७, पृ० ३९६ ३. वैशेषिकसूत्रोपस्कार, पृ० ४० । ४. 'एवमुत्क्षेपणावक्षेपणव्यवहारः शरीरतदवयवतत्संयुक्तमुशलतोमरादिष्वेव मुख्यो भवति। -वही, पृ० ४१
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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