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________________ ३१८ संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन सम्प्रदायों तथा दार्शनिक मान्यताओं के अनुरूप नव्यन्याय की विशिष्ट अभिव्यञ्जनशैली का प्रयोग करते हुए कारक-विशेषों पर विचार किया। फलस्वरूप अब कारकप्रकरण में समागत शब्दों के शक्यतावच्छेदक अर्थात् कारकत्व, कर्तृत्व, स्वतन्त्रत्व, कर्मत्व इत्यादि का निर्वचन होने लगा। सम्भवतः इसकी प्रतिक्रिया में या इस शैली से चमत्कृत होकर नव्यव्याकरण का उद्भव हुआ। भट्टोजिदीक्षित, कौण्डभट्ट तथा नागेश-प्रभृति वैयाकरणों ने इन नैयायिक-पूर्वपक्षियों की उन्हीं की भाषा-शैली का आश्रय लेकर घोर आलोचना की । नव्यव्याकरण के सिद्धान्तों को समझने के लिए पृष्ठभूमि के रूप में इन न्यायशास्त्रीय विचारों से अवगत होना अनिवार्य है, अन्यथा परम्परा की श्रृंखला के टूट जाने से नवीन अभिव्यञ्जना के दुर्बोध होने का भय है। इस प्रबन्ध में प्रायः सर्वत्र ही पृष्ठभूमि के रूप में न्यायशास्त्रीय विवेचन देकर नव्यव्याकरण में आये हुए लक्षणों पर विचार किया गया है। विचार के क्रम में कहीं-कहीं साथ-साथ भी न्यायमत का निर्देश कर उसकी समालोचना की गयी है। यही नहीं, नव्यव्याकरण के आचार्यों ने अपने तन्त्र के भी पूर्ववर्ती आचार्यों की कहींकहीं कटु आलोचना की है। अन्तिम रूप से नागेशभट्ट के मतों की स्थापना प्रधानतया लघुमञ्जूषा के आधार पर की गयी है। यह इस प्रबन्ध की विशेषता है कि उपर्युक्त चरणों में आये हुए विद्वानों के सम्बद्ध ग्रन्थों से सम्बद्ध स्थलों की पूरी व्याख्या पूर्वापर का तारतम्य दिखलाते हुए की गयी है। हाँ, अनावश्यक पुनरुक्तियों का परिहार अवश्य किया गया है। यदि किन्हीं मान्य विद्वान् के मत का कहीं अभाव है तो वह इसलिए कि उनमें वही बातें है, जो उनके पूर्ववर्ती कह चुके हैं और जिनका निर्देश इस प्रबन्ध में पहले भी किया जा का है । सारांश यह है कि तन्त्रस्थ किसी भी नये तथ्य का निरूपण करनेवाले विद्वान् का परित्याग नहीं किया गया है । __इस प्रकार मैंने कारकतत्त्व पर क्रमशः विकासशील विवेचनों की व्याख्या करके उनके तारतम्य की श्रृंखला दिखलायी है कि किस प्रकार बीजरूप पाणिनीय कारकसूत्र बढ़ता-बढ़ता नागेश तक पहुँचकर व्यापक वृक्ष का रूप ले लेता है। इस विकास के विश्लेषण में मैंने सर्वत्र व्याख्याकारों का ही आश्रय लिया है, अनर्गल कल्पना से प्रसूत कोई भी बात इसमें नहीं दी गयी है । मुझे कई मत चिन्त्य या आलोच्य भी मालूम पड़े हैं तो मैंने पूरा प्रयास किया है कि मेरी धारणा का समर्थन कहीं शास्त्रों में ही मिले और तदनुकूल मतों का संग्रह भी किया गया है। पाणिनीय व्याकरण एक विशाल सागर है, जिसमें हमें सभी दृष्टिकोणों से पूर्णता ही दिखलायी देती है। कारक-जैसे अत्यन्त गम्भीर और महत्त्वपूर्ण विषय से सम्बद्ध तथ्यों की भी उसमें कमी नहीं । अपनी नियत सीमा में रहकर मैंने उसमें से अनेक रत्नों का ग्रहण किया है तथा पाया है कि सभी आचार्य अपने दृष्टिकोण से स्वकथ्य को पूर्ण ही समझते हैं; किन्तु अन्तरंग-बहिरंग दोनों दृष्टियों से वह तथ्य नागेशभट्ट में ही पूर्णता प्राप्त करता है । यद्यपि नागेश से भी आगे बढ़ने का अवकाश अभी है,
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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