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________________ ३१६ संस्कृत - व्याकरण में कारकतत्वानुशीलन सम्बद्ध अध्याय में क्रिया का अपेक्षाकृत विस्तारपूर्वक विवेचन किया है जिसमें न्याय, मीमांसा तथा व्याकरण में विवेचित धात्वर्थ का निरूपण है । प्रबन्ध के व्याकरणोन्मुख होने के कारण अन्त में व्याकरण-मत की ही स्थापना की गयी है अन्यथा तन्त्र- विशेष में सीमित होकर कारक - विवेचन करने की प्रतिज्ञा का भंग होता । वैयाकरणों के द्वारा फल और व्यापार के संयुक्त अर्थ में धातु का अभ्युपगम होने से ही सकर्मक अकर्मक धातु की व्यवस्था हो पाती है तथा कारकों की संख्या के क्रमिक विकास पर भी प्रकाश पड़ता है। कारकों की संख्या के विकास को हमने चार चरणों या अवस्थाओं में प्रदर्शित किया है, जो निम्न रूप में हैं ( १ ) कर्ता - ' कारक' शब्द की अन्वर्थता के सन्दर्भ में यही सबसे मौलिक कारक सिद्ध होता है । अन्य कारक भी मूलतः कर्तृशक्ति से युक्त होकर ही निमित्तभेद से तत्तत् कारकशक्तियों को धारण करते कहे जाते हैं । यही अन्य कारक भेदों का कारक है जिससे वे यथावसर अपनी मूल शक्ति की अभिव्यक्ति करने के लिए विवक्षा से प्रेरित होते हैं । अतः सभी भाषाओं का मौलिक कारक कर्ता है । ( २ ) कर्म-कर्ता के बाद दूसरा महत्त्वपूर्ण स्थान इसी का है, क्योंकि धात्वर्थ ( व्यापार और फल ) के आश्रय के रूप में क्रमशः कर्ता तथा कर्म ही हैं । क्रियानिष्पत्ति में इसीलिए इन दोनों की सर्वाधिक उपकारकता रहती है। अतः न्यूनतम ये दो कारक तो किसी भी भाषा के लिए अनिवार्य हैं । ( करण तथा अधिकरण - ये दोनों कारक इसलिए तृतीय चरण के कारक हैं कि पूर्व से विद्यमान रहने वाले कर्ता या कर्म की सहायता क्रियानिष्पत्ति में करते हैं। अधिक स्पष्टतया कह सकते हैं कि करण क्रियानिष्पत्ति के निकटतम रहकर कर्ता IT उपकारक है तो अधिकरण कर्ता या कर्म के आधार के रूप में स्थित होकर दोनों का उपकार करता है। उपर्युक्त चार कारक भेदों में ही प्रायश: सरलता से कर्तृत्व की मौलिक सत्ता दिखलाना सम्भव है; अतएव कुछ लोग अपनी युक्तियों से चार कारकों की ही सत्ता दिखलाते हैं, किन्तु यह भ्रामक विचार है । में अन्तिम चरण में हुआ है । यद्यपि इनके गयी हैं, तथापि क्रमश: कर्म तथा कर्ता के उपकारक माने गये हैं जिससे इनकी कारकता सिद्ध होती है । ( ४ ) सम्प्रदान तथा अपादान -इन दोनों कारकों का योग उपर्युक्त कारकचक्र कारक होने के विपक्ष में कई युक्तियाँ दी उपकारक होने के कारण क्रिया के भी पाणिनि के सूत्रों में जो कारकों का पौर्वापर्य है, वह इस चरणगत विकास से पूर्णतया संगति रखता है, क्योंकि पाणिनीय क्रम के अनुसार अपादान- सम्प्रदान, करणअधिकरण, कर्म तथा कर्ता इस रूप में कारकों का महत्त्व क्रमशः बढ़ता गया है । कम महत्त्वपूर्ण कारक पहले दिये गये हैं और अधिक महत्त्वपूर्ण बाद में । विप्रतिषेध- परिभाषा की कारकों में प्रवृत्ति होने की पृष्ठभूषि में यही युक्तिसंगत विकास काम करता है । दूसरे शब्दों में, अपादान को दूसरे कारक बाधित करते हैं ( 'अपादानमुत्तराणि कार
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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