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________________ २७८ संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्वानुशीलन सकती, किन्तु ऐसा प्रयोग यदि अभीष्ट ही हो तो उस पर हेतुत्व का आरोप किया जा सकता है; जैसे- 'कण्टकाद् बिभेति' । स्मरणीय है कि भय की लोकप्रसिद्धि देशकालापेक्ष है। आरोप का आश्रय लेकर ही तो 'अन्तरिक्षेण जुहोति' 'परमाणुं न पश्यति' इत्यादि प्रयोग संगत होते हैं, अन्यथा असम्भव पदार्थों का बोध अथवा निषेध करना असंगत है। महाभाष्य में जो भयपूर्वक या त्राणपूर्वक निवृत्ति के अर्थ में इन धातुओं को लिया गया है वह नागेश को भी मान्य है। इसीलिए लघुमंजूषा में शाब्दबोध कराते हुए नागेश इस तथ्य का विशेष ध्यान रखते हैं-(१) 'बुद्धिप्राप्तचौरापादानिका प्रत्यासत्त्या तद्भयपूर्विका निवृत्तिः' । (२) 'बुद्धि प्राप्तचौरापादानिका प्रत्यासत्त्यानिष्टपरिहारफलिका निवृत्तिः' । चोरों के बीच में रहने पर भी यदि उनके सम्पर्क के फलस्वरूप होनेवाले बन्धन, वधादि से निवृत्त हो तो चोरों से ही निवृत्ति समझी जायगी। इस प्रकार भय के एकदेश को भी भय कहकर 'भयहेतु' की व्यवस्था होती है। वाल्मीकि ने 'कस्य बिभ्यति देवाश्च जातरोषस्य संयुगे' ( वा० रा० १।१।४ ) प्रयोग किया है। यहाँ शेषविवक्षा या अपादानत्व की अविवक्षा से षष्ठी का समर्थन किया जा सकता है, किन्तु दीक्षित यहाँ 'कस्य संयुगे' का अन्वय करके भयहेतु की समस्या ही समाप्त कर देते हैं ( श० कौ० २, पृ० ११८ ) । संयुग में भी अपादान की शंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि परत्व के कारण अधिकरण अपादान का बाधक होगा। (२) पराजेरसोढः (१।४।२६ )-परा-पूर्वक जि-धातु के प्रयोग में जो पदार्थ असह्य के रूप में विवक्षित हो उसे अपादान कहते हैं । 'असोढ' की व्युत्पत्ति हैनन् + सह+क्त । 'परा+जि' का प्रयोग प्राय: अभिभव के अर्थ में आता है; यथा'शत्रून्पराजयते' । किन्तु यहाँ यह असहिष्णुता के अर्थ में लिया जा रहा है, यह 'असोढ' के प्रयोग से ध्वनित होता है । यथा-'अध्ययनात्पराजयते' ( अध्ययन असह्य है, जिससे वह पिछड़ रहा है)। इस स्थिति में ( परास्त होना, हार मानना ) यह धातु अकर्मक है । इसीलिए इसे न्यूनीभाव ( कैयट ) तथा शक्तिवैकल्य के अर्थ में लिया गया है। पतञ्जलि इस उदाहरण की व्याख्या में कहते हैं कि विवेकी पुरुष अध्ययन को दुःखद और दुर्धर समझता है, गुरुजनों का वह ठीक से उपचार नहीं कर पाता । ऐसा सोचकर वह उससे निवृत्त ( पृथक् ) हो जाता है। अत: बौद्ध अपाय मानकर प्रमुख सूत्र में ही इसका अन्तर्भाव हो सकता है। यह इसलिए उपात्तविषय अपादान है कि 'परा+जि' से बोध्य पराजय-क्रिया निवृत्ति-क्रिया का अंग है। शक्तिवैकल्य के कारण वह व्यक्ति अध्ययन से निवृत्त हो रहा है। ___ 'असोढ' शब्द में क्त-प्रत्यय यद्यपि भूतकालिक है तथापि काल यहाँ अविवक्षित है। इसलिए अन्य कालों में भी इसके उदाहरण हो सकते हैं; यथा-'अध्ययनात्पराजेष्यते' । दीक्षित 'असोढ' शब्द को व्यर्थ समझते हैं, क्योंकि इसका प्रयोजन जो 'शत्रून्
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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