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________________ अपादान-कारक २७७ होती है । यहाँ इसी अकांक्षा से प्रेरित होकर क्रिया का अध्याहार किया जाता है। कारक-विभक्ति की प्राप्ति तो गम्यमान क्रिया के भी आधार पर होती है, अत: कारकत्व के उच्छेद की शंका नहीं करनी चाहिए। अपादान-संज्ञा के अन्य सूत्र (१) भीत्रार्थानां भयहेतुः ( १।४।२५ )-सूत्र में 'भी' और 'त्रा' शब्द इन्हीं धातुओं से क्विप्-प्रत्यय लगाकर बनाये गये हैं । इसलिए अर्थ हुआ कि भय तथा त्राण के अर्थ में होनेवाले धातुओं के योग में भय-हेतु कारक अपादान होता है। यथा'वृकेभ्यो बिभेति, चौरेभ्यः त्रायते' । इस विषय में भाष्यकार कहते हैं कि विचार कर काम करनेवाला व्यक्ति देखता है कि यदि भेड़िया या चोर उसे देख ले तो निश्चय ही वह मारा जायगा। यही सोचकर वह निवृत्त होता है। दूसरे उदाहरण में प्रेक्षापूर्वकारी सुहृत् सोचता है कि यदि मेरे मित्र को चोर देख लेंगे तो मार डालेंगे या बन्धनादि कष्ट देंगे । इसीलिए वह अपने मित्र को निवृत्त करता है। कयट यहाँ उपात्तविषय अपादान मानते हैं, क्योंकि भय-क्रिया निवृत्ति-क्रिया का अंग है-चौराद् बिभेति = चौरान्निवर्तते । भय का अर्थ है-आकुलीभाव ( कैयट ), अनिष्टसम्भावना ( गदाधर ) अथवा अनिष्टज्ञान ( नागेश ) । वैयाकरण-मत से बोध होगा-'चौरापादानक अनिष्टज्ञान तथा अनिष्ट-परिहार'। प्रथम भयार्थक तथा द्वितीय त्राणार्थक है। इन दोनों के अर्थों में अनिष्ट का बोध होने से 'भयहेतु' का अर्थ अनिष्ट-हेतु या अनिष्टजनक मानना उपयुक्त है। किन्तु प्रश्न है कि जब भय का अर्थ अनिष्टज्ञान है तो भय-हेतु को अनिष्ट-हेतु कैसे कह सकते हैं ? अधिक-से-अधिक हम अनिष्ट ज्ञान के हेतु को भयहेतु का अर्थ कहें। इस शंका को ध्यान में रखते हुए नागेश भयहेतु का अर्थ करते हैं-भय के एकदेश का अनिष्ट-हेतु होना । ऐसी स्थिति में भय के सभी प्रकारों में-चाहे आंशिक भय हो या पूर्ण-भयहेतु की संगति हो सकती है। गदाधर अनिष्ट-सम्भावना की स्थिति में अपादान की व्यवस्था सर्वत्र करते हैं। शत्रु के भ्रम से यदि मित्र से अनिष्ट-सम्भावना प्रसक्त हो तो 'मित्राद् बिभेति' कहने में कोई आपत्ति नहीं । अनिष्ट सर्वत्र अनुगत दु:ख के अर्थ में लिया जाता है । कभीकभी किसी पदार्थ से उत्पन्न होनेवाला दुःख सभी व्यक्तियों में प्रसिद्ध नहीं होता; जैसे-सर्प, काँटे इत्यादि से उत्पन्न होनेवाले दुःख से कोई अनभिज्ञ भी रह सकता है । इस स्थिति में अपने (अनुभवी व्यक्ति के) अनुभव के आधार पर भय या त्राण का प्रयोग करके पञ्चमी-विभक्ति व्यवस्थित हो सकती है । नागेश भी यही कहते हैं कि जिससे उत्पन्न होनेवाला भय लोकप्रसिद्ध नहीं हो उसमें अपादानाश्रित पञ्चमी नहीं हो १. 'यज्जन्यं दुःखं कस्यापि न प्रसिद्ध्यति तादशस्याहिकण्टकादेर्यद्यपादानत्वमिष्यते तदा तन्निष्ठस्वदुःखोपधायक-व्यापार-विरहानुकूलव्यापारस्तदपादानकं स्वकर्मकं रक्षणमिति वक्तव्यम् । -व्यु० वा०, पृ० २५५-५६
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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