SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 293
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७३ विषयत्व ( नागेश ) की अन्ततः सदृश परिणति होने पर भी नागेश का विश्लेषण अधिक महत्त्वपूर्ण है । 'धर्माद् विरमति' में धातु का अर्थ है - प्रागभाव की साधारण कृति के अभाव के अनुकूल व्यापार ( ल० म०, पृ० १२९२ ) । विराम निषेध रूप व्यापार है, जिसमें कृति ( प्रयत्न ) का अभाव रहता है । उत्पत्ति के पूर्व जिस प्रकार कार्य का अभाव रहता है ( असत्कार्यवादियों के अनुसार ), उसी प्रकार धर्मज्ञान के पूर्व नास्तिक में भी धर्म के प्रति कृत्यभाव होता है कि धर्म कोई वस्तु नहीं । वह उसके प्रति उत्साहहीनता दिखलाता है, निवृत्त हो जाता है । यहाँ अनुकूलता का तात्पर्य लेना चाहिए कि यह जीविका - निर्वाह ( योगक्षेम ) के सदृश व्यापार है । यह व्यापार धर्म के विषय में है अर्थात् एक प्रकार की आकांक्षा है । धर्म से नास्तिक को योग क्षेम सिद्ध होता नहीं प्रतीत होता, इसलिए वह निवृत्त हो जाता है । पतञ्जलि के विवेचन को ध्यान में रखते हुए ही नव्यशैली में यह विश्लेषण नागेश ने किया है । विराम के अर्थ के विषय में नैयायिकों के मत की नागेश ने कड़ी आलोचना की है । नैयायिक लोग कृति के असमानाधिकरण ( भिन्नाश्रयी ) कृतिध्वंस को, जो जीवनव्यापी हो, विराम कहते हैं । तदनुसार वे 'चैत्रो धर्माद् विरमति' का शाब्दबोध करते हैं - 'स्वजीवनकालावच्छिन्नो धर्मविषय कृत्य समानाधिकरणकृतिध्वंसः चैत्रवृत्तिः " । यहाँ कृति को सर्वत्र एक ही विषय से संयुक्त मानना चाहिए - चैत्र की कृति हो तो बाल, युवा, वृद्ध इन सभी दशाओं में वह कृति चैत्र से संयुक्त मानी जायगी । जीवन का भी अर्थ है - कर्ता से सम्बद्ध जीवन । पुनः यहाँ एक ही साथ उच्चरित ( समभिव्याहृत ) हुए कर्तृपद से बोधित होनेवाले शरीर ( पिंण्ड ) के सजातीय शरीर के आधार पर समानाधिकरण की कल्पना होती है । चैत्रादि कर्तृपदों से शरीर विशिष्ट आत्मा का तो बोध होता ही है, शरीर का भी बोध होता है । सजातीयता का ग्रहण चैत्रादिपदों के द्वारा लाये गये ( उपस्थापित ) चैत्रत्वादि जाति के आधार पर ही करना चाहिए । विराम-शब्द के इस नैयायिक अर्थ के अनुसार - भविष्यत्काल में देहान्तर पाकर कोई धर्माचरण भले ही करे किन्तु उसके वर्तमान शरीर से सम्बद्ध अन्तिम कृति-ध्वंस के आधार पर 'धर्माद् विरमति' इस प्रयोग की सिद्धि होती है । यह विरति जीवनभर चलती रहेगी । कृतिध्वंस तथा कृति दोनों असमानाधिकरण हैं । अपादान कारक नैयायिकों के मत में तीन प्रमुख दोष हैं - ( १ ) युवक होने पर यदि कोई व्यक्ति धर्म करने लगे तो उसके बालशरीर से सम्बद्ध कृतिध्वंस के आधार पर 'विरमति' का प्रयोग नहीं हो सकेगा, क्योंकि कृतिध्वंस और कृति एक ही शरीर से सम्बद्ध ( समानाधिकरण ) है । ( २ ) पूर्वकाल में तथा परकाल में धर्माचरण करने पर भी यदि मध्यकाल में अल्पावधि में क े धर्म पर नहीं चलता तो यहां भी 'विरमति' का प्रयोग नहीं हो सकता, क्योंकि जिस रीर में कृतिध्वंस है उसी में कृति भी है ( विराम N १. ल० म०, ( कला ) पृ० १२९३ ।
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy