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________________ २७२ संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्वानुशीलन कात्यायन के उक्त वार्तिक का अर्थ है कि जुगुप्सा ( घृणा ), विराम तथा प्रमाद के अर्थ में भी अवधिभूत कारक को अपादान कहते हैं। जैसे-अधर्माज्जुगुप्सते ( अधर्म से घृणा करता है ), धर्माद्विरमति ( धर्म से निवृत्त होता है ), धर्मात् प्रमाद्यति ( धर्म से अनवहित रहता है )। वार्तिककार को संश्लेषपूर्वक विश्लेष को अपाय मानना अभिप्रेत है। इन स्थितियों में कोई ऐसा ( वास्तविक ) अपाय नहीं है । इसीलिए इस वार्तिक की आवश्यकता है। यदि बुद्धिकल्पित अपाय का ग्रहण करते हैं तो वह गौण है अर्थात् वास्तविक अपाय के रूप में प्रसिद्ध है ( उद्योत )। भाष्यकार ने दूसरे उपसंख्यानों की भी आवश्यकता बतलायी है; यथा-'सांकाश्यकेभ्यः पाटलिपुत्रका अभिरूपतराः' ( सांकाश्यवासियों की अपेक्षा पाटलिपुत्र के निवासी अधिक सुन्दर हैं )। किन्तु यदि इसी तरह उपसंख्यान करते रहें तो कितने ही स्थलों के उदाहरणों के लिए हमें अनन्त नियम बनाने पड़ेंगे। ___ इसी आनन्त्य-दोष से बचने के लिए पतञ्जलि बुद्धिकल्पित या गौण अपाय को योजना करते हैं । 'अधर्माज्जुगुप्सते, विरमति, बीभत्सते' इत्यादि उदाहरणों का अर्थ है कि जो मनुष्य दूरदर्शी ( प्रेक्षापूर्वक या सोच-विचार कर काम करनेवाला ) है वह सोचता है कि अधर्म दुःख का स्रोत है, अतः उससे हानि है, लाभ नहीं। वह इस विचार के बौद्धिक सम्पर्क में आकर उस अधर्म से अलग हो जाता है, अतः वहां मुख्य सूत्र से ही बुद्धिकृत अपाय मानते हुए अधर्म को ध्रुव ( उदासीन ) समझ कर अपादान की व्यवस्था हो सकती है। यही बात 'धर्माद् विरमति, प्रमाद्यति' के साथ है । जो व्यक्ति सम्भिन्न बुद्धि का ( = नास्तिक, जिसकी बुद्धि धर्म-अधर्म दोनों में समान रहती है ) है, वह सोचता है कि धर्म नामक कोई ऐसा पदार्थ नहीं जिसका सम्पादन किर जाय । यही समझ कर वह निवृत्त हो जाता है। वार्तिक के उदार रणों की व्याख्या में नागेश का नव्यन्याय से स्पष्ट मतभेद है । 'अज्जुिगुप्सते' में भवानन्द के अनुसार पञ्चभी का अर्थ कर्मत्व है और धात्वर्थ है निन्दा । फलस्वरूप 'अधर्म निन्दति' के रूप में इसका अर्थ-पर्यवसान होता है ( कारकचक्र, पृ० ७४ )। दूसरी ओर नागेश 'जुगुप्सा' का अर्थ करते हैं-अनिष्टसाधनता के ज्ञान के रूप में निन्दा ( ल० म०, पृ० १२९१)। पञ्चमी-विभक्ति का अर्थ है विषयता । जिसे विषय बनाकर जुगुप्सादि विवक्षित हो वही अपादान है । यदि उसी विषय की क्रियाजनक कारक के रूप में विवक्षा नहीं हो, प्रत्युत सम्बन्धी के रूप में कहना अभिप्रेत हो तो 'पापस्य जुगुप्सते' ऐसा प्रयोग हो सकता है । इस उदाहरण का नागेश-सम्मत अर्थ है-अनिष्टसाधनता का ज्ञान रखते हुए कोई व्यक्ति अधर्म से निवृत्त होता है । पतञ्जलि का भी यही मत है । कर्मत्व ( भवानन्द ) तथा १. "जुगुप्सादीनां यविषयकत्वेन विवक्षा तदपादानम् । तस्यैव बिषयस्य..... सम्बन्धित्वेन च विवक्षायां पापस्य जुगुप्सते' इति षष्ठी भवत्येव सत्यभिधाने" । -ल० श० शे०, पृ० ४५२
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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