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________________ २४२ संस्कृत-व्याकरण में फारकतत्त्वानुशीलन सम्बन्ध ब्राह्मण से कराया जाता है। तदनुसार ब्राह्मण गौ में अवस्थित उपर्युक्त स्वत्वफल का भागी होगा। सीधे शब्दों में कहें कि ब्राह्मण गौ को स्वधन के रूप में समझने लगा। यह नहीं समझना चाहिए कि ब्राह्मण के लिए पदार्थ को स्वीकार करना सम्प्रदान होने के लिए अनिवार्य है । पुनः सम्प्रदान के भेदों में 'अनिराकर्तृ' भी होता है, जो इस स्वीकार-विधि से सर्वथा अस्पृष्ट रहता है । गदाधर के कहने का अभिप्राय इतना ही है कि क्रियाजन्य फल के अधिकारी के रूप में ( भले ही पात्र को अपने इस अधिकार का पता नहीं हो ) कर्ता का जो इच्छा-विषय होता है वह सम्प्रदान है। उक्त उदाहरण का शाब्दबोध गदाधर अपने न्यायमत से कराते हैं'त्यागरूप-क्रियाजन्य-गोनिष्ठ-स्वत्वभागितया दातुरिच्छाविषयो ब्राह्मणः'। यह शाब्दबोध उपर्युक्त लक्षण को ध्यान में रखते हुए दिया गया है। जिस प्रकार केवल 'उद्देश्यत्व' कह देने से काम नहीं चलता, उसी प्रकार 'इच्छाविषयत्व' भी अपने-आप में सम्प्रदानत्व को लक्षित करने में असमर्थ है। कर्म तथा सम्प्रदान का भेद निरूपित करते समय गदाधर इसे स्पष्ट करते हैं । फल के आश्रय के रूप में जो इच्छाविषय हो वह कर्म है; फल के सम्बन्धी के रूप में इच्छाविषय होने वाला सम्प्रदान है । ब्राह्मण चूंकि त्यागजन्य स्वत्व ( फल ) के आश्रय के रूप में दानकर्ता का इच्छाविषय नहीं है, अतः वह कर्म नहीं । ब्राह्मण स्वत्व के निरूपक के रूप में ही दाता को इष्ट है २ । इस प्रकार इच्छाविषयत्व की विशेषता देखी जा सकती है। आश्रयता कर्म का नियमन करती है और सम्बन्ध सम्प्रदान का नियामक है। ___ यह शंका हो सकती है कि आश्रयता भी तो एक प्रकार का सम्बन्ध ही है । ऐसी स्थिति में त्यागफल का आश्रय ( गौ ) भी सरलता से सम्प्रदान बन सकता है, जो संगत नहीं । यदि यह कहें कि आश्रयता के रूप में जहाँ पर कहना अभीष्ट होता है वहाँ कर्मसंज्ञा के द्वारा सम्प्रदान-संज्ञा बाधित होती है तथा सम्प्रदान का निरूपक सम्बन्ध इस आश्रयता से भिन्न होता है; तब तो 'वृक्षायोदकमासिञ्चति, पत्ये शेते' इत्यादि उदाहरणों में-( १ ) सेक से उत्पन्न जलसंयोग ( फल ), ( २ ) शयन से उत्पन्न प्रीति ( फल )-इत्यादि के आश्रय के रूप में जो वृक्ष, पति प्रभृति पदार्थ है उन्हें सम्प्रदान नहीं हो सकेगा, क्योंकि आप आश्रयता से भिन्न सम्बन्ध को सम्प्रदान का नियामक मान रहे हैं । इस शंका के समाधानार्थ गदाधर कहते हैं कि सम्प्रदान में फलाश्रयत्व ( जो कर्म-कारक का नियामक है ) से भिन्न फल-सम्बन्ध तो रहता है १. 'तथा च क्रियाजन्यफलभागितया कर्तुरिच्छाविषयत्वम्' । -व्यु० वा०, वहीं २. 'फलाश्रयतयेष्टत्वमेव हि कर्मत्वम् । फलसम्बन्धितयेष्टत्वं सम्प्रदानत्वम् । ब्राह्मणादिश्च न त्यागजन्यस्वत्वाश्रयतया दातुरिष्ट:, अपितु तन्निरूपकतयैवातो न तस्य कर्मता'। –व्यु० वा०, पृ० २३८
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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