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________________ सम्प्रदान कारक २४१ यदि इस लक्षण में 'कर्म' पद का निवेश नहीं हो तो कर्म को ही सम्प्रदानसंज्ञा होने लगे; जैसे - ओदनं पचति । यहाँ पाक-क्रिया-रूप कारण से उत्पन्न विक्लित्ति फल के अधिकारी के रूप में ओदन ही उद्देश्य है, अतः उसे सम्प्रदान कहते, किन्त पाकक्रिया के कारणरूप 'कर्म' से उत्पन्न फल का वह अधिकारी नहीं। भाष्यकार भी 'कर्मणा' के पदकृत्य में ऐसी ही बात कह चुके हैं । इच्छाविषयत्व गदाधर इस लक्षण को आगे बढ़ाते हुए 'कर्ता के अभिप्रेत अथवा इच्छाविषय' के रूप में सम्प्रदान का निर्वचन करते हैं। उनके अनुसार सम्प्रदान मुख्य तथा गौण दोनों प्रकार से होता है, क्योंकि दानक्रिया कहीं तो अपने मुख्यार्थ ( त्याग ) में रहती है, किन्तु कहीं-कहीं उस रूप में नहीं भी रहती। इसके अतिरिक्त दानेतर क्रियाओं में भी, पाणिनि के दूसरे सूत्रों से सम्प्रदान की प्राप्ति होती है जो गौण सम्प्रदान कहलाता है। इन दोनों ही स्थितियों में, क्रिया के कर्म के सम्बन्धी के रूप में जो कर्ता को अभिप्रेत हो वही सम्प्रदान है । 'ब्राह्मणाय गां ददाति' में दानक्रिया के कर्म ( गौ ) का सम्बन्धी ब्राह्मण है। गौ को ब्राह्मण से सम्बद्ध कर देना कर्ता को अभीष्ट है, अतएव वह सम्प्रदान है। क्रियाजन्य फल के आश्रय को क्रियाकर्म कहते हैं । यहाँ फल स्वत्व के रूप में है अतः स्वत्वशालित्व गौ में है, वह स्वत्व का आश्रय है। दान क्रिया से यही स्वत्वरूप फल उत्पन्न होता है। यहाँ कुछ लोगों की शंका है कि दान तो एक प्रकार का त्याग है, अतः वह ( दान-क्रिया ) स्व-स्वत्वध्वंसमात्र का ही वैधरूप में जनक हो सकता है, परस्वत्वपर्यन्त का नहीं। परस्वत्व का जनक तो न्यायतः प्रतिग्रहीता के द्वारा किये गये पदार्थ-स्वीकार को कह सकते हैं। फलतः दानक्रिया से जन्य फल जो मिलेगा वह स्वत्वध्वंस ही होगा, परस्वत्वापादन नहीं। किन्तु यह शंका नितान्त निर्मूल है, क्योंकि ब्राह्मण के लिए जो गौ परित्यक्त होती है उसमें 'यह गौ ब्राह्मण की है, मेरी नहीं' यह जो सार्वजनीन प्रतीति होती है, वही इसका प्रत्याख्यान करने में समर्थ है । यही कारण है कि विदेशस्थ पात्र के उद्देश्य से जो धन निकाला जाता है उसे पात्र स्वीकार करे या नहीं ( पात्र को उस त्याग का पता भी न हो )-पात्र के मरने पर, पितृदाय के रूप में, उसे उसके वंशधर ले लेते हैं । यदि ऐसा नहीं होता तो पुत्रादि के समान ही उदासीन व्यक्ति भी उस धन पर अरण्यकुशादि के समान अपना अधिकार दिखलाने लगते । अब तथाविध कर्मत्व से युक्त पदार्थ के साथ सम्बन्ध होता है अर्थात् कर्मत्वयुक्त पदार्थ में अवस्थित फल का भागित्व मिल जाता है। दान-क्रिया से उत्पन्न स्वत्व-फल का आश्रय गौ है, इसमें क्रियाकर्मत्व है। इस क्रियाकर्मत्व से युक्त पदार्थ ( गौ ) का १. 'सम्प्रदानत्वं च मुख्यभा, माधारणं क्रियाकर्मसम्बन्धितया कर्बभिप्रेतत्वम्' । ----व्यु० वा०, पृ० २३६ २. द्रष्टव्य-व्यु० वा०, पृ० २३७ ( प्रकापाटीका )।
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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