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________________ सम्प्रदान-कारक २२९ क्रियाओं की प्रतीति हो । होता यह है कि दूरदर्शी व्यक्ति किसी पदार्थ की अपने मन में कल्पना करता है ( संदर्शन ), तब तद्विषयक इच्छा उसके मन में उठती है (प्रार्थना) और अन्त में निश्चय होता है कि कार्यारम्भ हो ( अध्यवसाय )। तदनुसार प्रयास होता है और एक समय कार्य की समाप्ति भी हो जाती है । अन्त में फल मिलता है । जब तक सन्दर्शन, प्रार्थना और अध्यवसाय नहीं होते तब तक कोई भी व्यक्ति कोई कार्य करके उसका फल नहीं पा सकता । अतएव सभी क्रियाओं को प्राप्त करने की इच्छा कर्ता में रहती ही है । दूसरे शब्दों में-क्रिया भी कर्ता का ईप्सिततम है और इसीलिए कृत्रिम कर्म के रूप में सिद्ध होती है, क्योंकि 'ईप्सिततम' की कठिनाई दूर की जा सकती है ( भाष्य २, पृ० २५७ )। कर्म तथा सम्प्रदान : भेदाभेद-विवक्षा इसका अभिप्राय यह है कि जहाँ सम्प्रदान अभीष्ट हो वहाँ सन्दर्शनादि तथा मुख्य क्रिया के बीच भेद विवक्षित रहता है । इसीलिए उन प्रतीयमान क्रियाओं के द्वारा आप्यमान अथवा ईप्सित क्रिया को कृत्रिम कहने में कोई आपत्ति नहीं और उस क्रिया के द्वारा सम्बध्यमान पदार्थ को सम्प्रदान कहते हैं। 'पत्ये शेते' इत्यादि उदाहरणों में यही बात हुई है । दूसरी ओर, सम्प्रदान की विवक्षा नहीं होने से उक्त भेद-विवक्षा भी नहीं होती। फलस्वरूप उत्पत्ति, विक्लित्ति इत्यादि किसी एक फल की निश्चित सीमा के अन्तर्गत एकीभूत क्रिया से जो पदार्थ व्याप्त होता है वह कर्म है; जैसे-ओदनं पचति, कटं करोति । अतएव क्रिया से सम्बद्ध किये जाने पर भी ओदन, कट आदि शब्दों में सम्प्रदानत्व नहीं है, अन्यथा 'क्रियया यमभिप्रेति०' इस वार्तिक से यहां भी उसकी प्राप्ति थी। गत्यर्थक धातुओं मे भेद और अभेद दोनों की विवक्षा होती है । भेद-विवक्षा होने पर 'ग्रामाय गच्छति' और अभेद-विवक्षा की दशा में 'ग्रामं गच्छति' प्रयोग होता है । इसी आधार पर भाष्यकार ने 'गत्यर्थकर्मणि द्वितीयाचतुथ्यो चेष्टायामनध्वनि' (पा० सू० २।३।१२ ) का प्रत्याख्यान किया है कि द्वितीया तो कर्म में सिद्ध होती है और चतुर्थी सम्प्रदान में, क्योंकि 'ग्रामाय गच्छति' में गमन-क्रिया के द्वारा कर्ता ग्राम को सम्बद्ध करता है । इस भेद-विवक्षा पर भर्तहरि की उक्ति उपजीव्यात्मक सन्दर्भ के रूप में सर्वत्र ग्राह्य रही है--- १. 'भाष्यमते तु यत्र सम्प्रदानत्वमिष्टं तत्र सन्दर्शनादीनां क्रियायाश्च भेदो विवक्ष्यते । ततश्च तेराप्यमाना क्रियापि कृत्रिमं कर्मेति सिद्धम् । तयाभिप्रेयमाणस्य सम्प्रदानत्वम्' । -श० को० २, पृ० १२१ २. वहीं। ३. द्रष्टव्य ( कैयट २, पृ० ४९६ )-'तत्र यदा गमनस्य सन्दर्शनादीनां च भेदो विवक्ष्यते तदा सन्दर्शनादिभिः क्रियाभिराप्यमानत्वात् कर्मणा गमनेनाभिप्रेयमाणस्य सम्प्रदानत्वाच्चतुर्थी भवति' ।
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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