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________________ २२८ संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन यहां अकर्मक क्रिया से ही कात्यायन का अभिप्राय है, क्योंकि सकर्मक क्रिया की स्थिति में सम्प्रदान को कर्म के ही द्वारा सम्बद्ध किया जा सकता है तब यह वातिक निरर्थक हो जाता' । इसलिए इस वार्तिक में अकर्मक क्रिया के ही उदाहरण दिये गये हैंश्राद्धाय निगर्हते ( श्राद्ध को लक्षित करके निन्दा करता है ), युद्धाय सन्नह्यते ( युद्ध के उद्देश्य से सज्जित होता है ), पत्ये शेते (पति के निकट जाकर सोती है)२ । जहाँ सकर्मक क्रिया का प्रयोग हो किन्तु कर्म श्रूयमाण नहीं हो वहाँ गम्यमान कर्म के आधार पर पाणिनि-सूत्र से ही सम्प्रदान-संज्ञा की व्यवस्था हो सकती है; जैसे---तस्मै (कथा) कथयति । विकल्पतः सकर्मक क्रिया को अकर्मक मानकर भी प्रस्तुत वार्तिक से काम लिया जा सकता है। यह दूसरा विकल्प इसलिए लिया गया है कि अनेक वैयाकरण सूत्रस्थ 'कर्मणा' शब्द में केवल दानक्रिया के कर्म का ग्रहण करते हैं, अन्य क्रियाओं के नहीं। पतञ्जलि इस वार्तिक का प्रत्याख्यान करते हुए इसका प्रयोजन सूत्र द्वारा गतार्थ मानते हैं। लौकिक प्रयोग में क्रिया का अर्थ कर्म ही होता है, क्योंकि 'कां क्रियां करिष्यति' का अर्थ होता है ---'कि कर्म करिष्यति' । किन्तु कर्म और क्रिया को पर्याय मानना ही पर्याप्त नहीं है । शास्त्रीय कर्म ( कृत्रिम ) तथा क्रियार्थक लौकिक (अकृत्रिम ) कर्म दोनों की उपस्थिति होने पर शास्त्रीय कर्म का ही ग्रहण किया जायगा ( कृत्रिमाकृत्रिमयोः कृत्रिमे कार्यसम्प्रत्ययो भवति )। अतः जब तक उक्त क्रिया-बोधक कर्म को कृत्रिम सिद्ध नहीं किया जाता, हमारा उद्देश्य सिद्ध नहीं होगा। पतञ्जलि कहते हैं कि क्रिया भी कृत्रिम कर्म ही है, क्योंकि कर्म के रूप में क्रिया का प्रयोग सभी वैयाकरणों को अभीष्ट नहीं। कृत्रिम कर्म की उपपत्ति तभी होती है जब शास्त्रान्तर में या लोक में उसे वैसा प्रयुक्त न करें, केवल शास्त्र-विशेष में ही यह प्रयुक्त हो। 'कर्तुरीप्सिततमं कर्म के अनुसार होनेवाला कर्म ही कृत्रिम है। यदि किसी प्रकार कर्म और क्रिया की पर्यायरूपता सिद्ध भी कर दें तो उक्त कर्मलक्षण वाले सूत्र की व्याख्या में असंगति होगी। उसी क्रिया के द्वारा ( क्रियया ) वही क्रिया ( कर्म ) कैसे ईप्सित हो सकती है ? काल तथा रूप के भेद से कोई पदार्थ विभिन्न कारकों की शक्ति ले सकता है, किन्तु एक समय में वही क्रिया कर्म तथा करण दोनों कारकों में नहीं हो सकती। आप-धातु से बोध्य क्रिया का करण तो क्रिया है ही, यदि क्रिया वहां कर्म भी हो जाय तब तो असंगति की कोई सीमा ही नहीं। किन्तु भाष्यकार असंगति में भी संगति सिद्ध करते हैं कि क्रिया के द्वारा भी क्रिया ईप्सिततम ( आप्यमान ) हो सकती है; यदि संदर्शन, प्रार्थना और अध्यवसाय १ तुलनीय ( ल० श० शे०, पृ० ४४१)--- 'ननु कर्मणेत्युक्तावकर्मक क्रियोद्देश्यस्य सम्प्रदानत्वं न स्यादत आह-क्रिययेति । कर्मरहितक्रिययेत्यर्थः' । २. तुलनीय ( हेलाराज ३।७।१३० )-- "इह श्राद्धाय निगर्हते, युद्धाय सन्नह्यते, पत्ये शेते इत्यकर्मकधातुविषये कर्मणोऽभावात् तेनाभिप्रेयमाणस्य सम्प्रदानता न सिध्यतीति 'क्रियाग्रहणमपि कर्तव्यम्' इति वार्तिकेऽभिहितम्"।
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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