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________________ १८८ संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन 'प्रकृत्युच्छेदसम्भूतं किञ्चित्काष्ठादिभस्मवत् । किञ्चिद् गुणान्तरोत्पत्त्या सुवर्णादिविकारवत् ॥ -वा०प० ३।७।५० इसके अनुसार विकार्य कर्म दो प्रकार से होता है। कभी-कभी प्रकृति के उच्छेद ( नाश ) से उत्पन्न होता है, जैसे—'काष्ठं भस्म करोति' । इसमें काष्ठ विकार्य कर्म है जिसका नाश होता है। कभी-कभी प्रकृति का नाश तो नहीं होता, किन्तु उसमें दूसरे गुण उत्पन्न हो जाते हैं जैसे- 'सुवर्ण कुण्डलं करोति' । यहाँ सुवर्ण विकार्य कर्म है।' यद्यपि विकार्य कर्म के उदाहरण की उपर्युक्त व्यवस्था सर्वथा तर्कसंगत तथा २दीक्षित, कौण्डभट्टादि आचार्यों के द्वारा स्वीकृत भी है, तथापि भर्तृहरि के व्याख्याकार हेलाराज इससे पृथक् विचार रखते हैं । उनका कथन है कि 'काष्ठानि भस्म करोति' में पूर्वलक्षण के अनुसार प्रकृति-विकृति भाव है और दोनों का क्रिया से सम्बन्ध है। प्रकृति ( काष्ठ ) की अविवक्षा होने पर भस्म' निर्वर्त्य है, किन्तु जहाँ दोनों की विवक्षा साथ ही हो, वहाँ 'भस्म' विकार्य है । हेलाराज दोनों विकार्य-लक्षणों का भेद बतलाते हुए आगे कहते हैं कि इस 'प्रकृत्युच्छेद' वाले लक्षण में यह विशेषता है कि प्रकृति की अविवक्षा होने पर भी भस्मादि कार्य-रूप विशेष से काष्ठादि का नाश करके उत्पन्न हुआ है- इस प्रतीति के कारण वह ( भस्म ) विकार्य कर्म होगा। प्रथम लक्षण के अनुसार प्रकृति साक्षात् विकार्य कर्म है और उससे अभिन्न होने के कारण उसका विकार भी उस कोटि में आता है तथा द्वितीय लक्षण के अनुसार विकार ही साक्षात् विकार्य कर्म है ( हेलाराज ३।७।५० पर )। किन्तु वास्तव में हेलाराज का यह समझना कि भर्तृहरि के दोनों लक्षणों में भेद है, सत्य का तिरस्कार है । प्रथम लक्षण जहाँ विकार्य कर्म का सामान्य लक्षण देता है कि प्रकृति की विवक्षा होने पर ( उसे ही ) विकार्य कर्म कहते हैं, वहीं दूसरा लक्षण उसका वर्गीकरण करता है । अतः वे एक-दूसरे के पूरक हैं, परस्पर विकल्प या उत्सर्गापवाद के रूप में नहीं । दूसरी बात यह कि 'काष्ठं भस्म करोति' में हेलाराज यदि भस्म को विकार्य मानते हैं तो काष्ठ को कर्म मानने के लिए अभेद-सम्बन्ध से उस पर विकार्यत्व का आरोप होगा, जो अनुचित है। तीसरे 'विकार्य' पद की सार्थकता काष्ठ ( अर्थात् प्रकृति ) को ही विकार्य कर्म मानने में है; भस्म तो स्वयं विकार अर्थात् निर्वर्त्य है, जो काष्ठनाश के अनन्तर निष्पन्न होता है । इसलिए परवर्ती आलोचकों ने कहा है कि काष्ठ और सुवर्ण के परिणामित्व ( अभिन्नता या परिवर्तनशीलता ) की विवक्षा रहे या नहीं, भस्म तथा कुण्डल निर्वर्त्य कर्म है, काष्ठ और सुवर्ण ही विकार्य हैं।' १. 'अत्र काष्ठसुवर्णयोः परिणामित्वविवक्षाविवक्षयोरपि भस्मकूण्डलरूपकर्मणो. निर्वर्त्यतैव । काष्ठसुवर्णयोस्तु विकार्यत्वमित्यविधेयम्'। -वै० भू०, पृ० १०६ २. 'इह भस्मकुण्डलयोनिर्वय॑त्वमेवेति बोध्यम्'। -श० को० २, पृ० १२९ ३. काष्ठ के विकार्यत्व की उपपत्ति के लिए कौण्डभट्ट बहुत सचेष्ट हैं । द्रष्टव्य
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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