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________________ कर्म-कारक १८७ गयी हैं । इस सिद्धान्त के अनुसार कार्य की उत्पत्ति नहीं होती, अभिव्यक्ति या परिणति होती है । भर्तृहरि निर्वर्त्य कर्म के दूसरे लक्षण में इन दोनों मतों को ध्यान में रखते हैं कि वस्तु चाहे नैयायिकों के अनुसार असत्-रूप में जन्म ले रही हो या सत्-रूप में रहकर ही जन्म के द्वारा अभिव्यक्त हो रही हो — दोनों ही स्थितियों में वह निर्वर्त्य है 'यत्सज्जायते, सद्वा जन्मना यत्प्रकाशते । निर्वर्त्यम् .." "I - वा० प० ३।७।४९ किसी भी स्थिति में 'घटं करोति' इस वाक्य में स्थित घट - शब्द से वाच्य वस्तु निर्वर्त्य कर्म है, क्योंकि इसका जन्म होता है या जन्म द्वारा इसे प्रकाशित किया गया है । प्रकृति की वहाँ चर्चा ही नहीं है, अतः प्रथम लक्षण में चर्चित अभेद-विवक्षा भी नहीं है | समन्वय के लिए कहा जा सकता है कि निर्वर्त्य कर्म की प्रकृति ( कारण ) विद्यमान हो या अविद्यमान - जन्म के द्वारा उसे प्रकाशित किया ही जाता है। हेलाराज सत्कार्यवाद की ओर झुकते हुए कहते हैं कि यहाँ जन्म शब्द से सत् का प्रकाशन ही विवक्षित है, क्योंकि जन्म शब्द से प्रकृति की विवक्षा होने पर कर्म विकार्य हो जाता है । भर्तृहरि ने प्रथम लक्षण में ही अविद्यमान प्रकृति से कर्म के द्वारा निर्वर्तित होने की चर्चा की है - 'असज्जायते अर्थात् जन्मना प्रकाश्यते' कहकर इस द्वितीय लक्षण में उसी का उल्लेख किया है । यहाँ विशेष तथ्य यह है कि 'पुत्रं प्रसूते' तथा 'शब्द प्रयुङ्क्ते' इन वाक्यों में कुक्षि में स्थित ( विद्यमान ) पुत्र का तथा विवक्षित शब्द का प्रसव और प्रयोग के द्वारा प्रकाशन होता है । इसलिए सत् का प्रकाशन ही यहाँ जन्म है । तथापि भर्तृहरि के द्वारा निरूपित निर्वर्त्यं कर्म के दोनों लक्षणों में यही भेद है कि प्रथम लक्षण जहाँ लोक-प्रतीति पर आश्रित है, वहीं दूसरा लक्षण दो विभिन्न दार्शनिक दृष्टिकोण भी प्रस्तुत करता है । ( २ ) विकार्य कर्म - निर्वर्त्य के समान ही इसके दो प्रकार के लक्षण दिये जाते हैं । निर्वर्त्य के प्रथम लक्षण से सम्बन्ध लक्षण है – 'प्रकृतेस्तु विवक्षायां विकार्यम्' ( वा० प० ३।७।४८ ) । निर्वर्त्य कर्म में जहाँ प्रकृति की विवक्षा नहीं होती है, जैसे'घटं करोति' वहीं विकार्य कर्म में प्रकृति की विवक्षा होती है और वह भी अभिन्नरूप में, जैसे – 'मृदं घटं करोति' । मृत्तिका ( प्रकृति ) तथा घट ( विकृति ) के बीच यहाँ कारण- कार्य या प्रकृति - विकृति का सम्बन्ध है, किन्तु दोनों को अभिन्नरूप से कर्म बनाकर ही प्रयोग किया गया है । स्पष्ट है कि विकार का विषय मृत्तिका है, जिसे घट के रूप में बदला गया है। तदनुसार मृत्तिका विकार्य कर्म है और घट निर्वर्त्य है तथा प्रकृति विकार्य है और विकृति निर्वर्त्य - यही व्यवस्था है । इसी प्रकार 'काशान् ( प्रकृति-विकार्यं कर्म ) कटं ( निर्वर्त्य ) करोति' तथा 'अङ्गारान् भस्म करोति' इत्यादि में काश तथा अंगार विकार्य कर्म हैं । विकार्य के दूसरे लक्षण में भर्तृहरि विश्लेषणात्मक व्याख्या देते हैं
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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