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________________ १६४ संस्कृत - व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन अनीप्सित तथा ईप्सिततम के दो सूत्र लिखने का क्या प्रयोजन है ? इसका उत्तर वे स्वयं देते हैं कि 'अग्नेर्माणवकं वारयति' में 'वारणार्थानामीप्सितः' ( पा० १/४/२७ ) से माणवक को अपादान संज्ञा प्राप्त है, क्योंकि वारण करनेवाले के लिए वही ईप्सित है । इसे रोकने के लिए ईप्सिततम-सूत्र देना आवश्यक है । जब इसका कथन हो गया है तब द्वेष्य तथा उदासीन के संकलनार्थं ' तथायुक्तं चानीप्सितम् ' सूत्र भी देना ही चाहिए । फिर भी दीक्षित को इस सूत्र में अनीप्सित-शब्द व्यर्थ लगता है, क्योंकि ' तथायुक्तम्' कहने से ही ईप्सिततम से भिन्न द्वेष्य और उदासीन कर्मों का संकलन हो जाता | तत्त्वबोधिनीकार 'अनीप्सित' को स्पष्ट बोध के लिए मानते हैं । ( २ ) कोण्डभट्ट भट्टोजिदीक्षित की कारिका के अनुसार द्वितीया, तृतीया और सप्तमी का अर्थ आश्रय मानते हुए ईप्सिततम सूत्र से निष्पन्न कर्म का अर्थ 'धातु से उपात्त फल का आश्रय' स्वीकार करते हैं । तात्पर्य यह है कि क्रिया से उत्पन्न होने बाले फल को धारण करने के कारण कर्म ही कर्ता के लिए ईप्सिततम होता है । उस फल को व्याप्त करने पर ही कर्ता की इच्छा की निवृत्ति ( पूर्ति ) हो सकती है । इस प्रकार धातुफल के आश्रय में कर्मत्व की व्यवस्था होती एवं च फलाश्रयः कर्म ) | यह सत्य है कि द्वितीया के अतिरिक्त भी कई विभक्तियों का अर्थ आश्रय माना जाता है, किन्तु फल का आश्रय केवल कर्मकारक वाली द्वितीया विभक्ति ही होती है, अन्य विभक्तियाँ नहीं; अतः द्वितीया का आश्रयत्व अर्थ फलाश्रयत्व के रूप में पर्यवसित होकर उन विभक्तियों का वारण करता है । अब प्रश्न है कि 'फलाश्रय' शब्द में जो फल का अंश विशेषण के रूप में लगाया गया है वह धातु से भिन्न किसी दूसरे कारण से तो उपलब्ध होता नहीं । वह क्रिया का फल है, अतः प्रकृत धातु से ही लभ्य है । दूसरे शब्दों में कहें कि फल का अंश ( विशेषण ) अनन्यलभ्य है-उसका धातु से कभी व्यभिचार ( पृथक्करण ) नहीं होता, अतः इस विशेषण की आवश्यकता नहीं है, यह व्यर्थ है । हम धातुफलाश्रय कहें या केवल आश्रय कहें - कोई अन्तर नहीं आयेगा । कारकाधिकार में धातु का बोध तो होगा ही । फलस्वरूप आश्रय को द्वितीयार्थ अथवा कर्म कहने में कोई आपत्ति नहीं । उपर्युक्त प्रकार से कर्मत्व की व्यवस्था तो नैयायिकों ने भी की है । हम उनके साथ होनेवाली कठिनाई देख चुके हैं कि 'चैत्रो ग्रामं गच्छति' में ग्रामसंयोग के रूप में फल प्राप्त होता है । उसका आश्रय जहाँ एक ओर ग्राम है तो दूसरी ओर चैत्र भी है; तो चैत्र को भी कर्म कह सकते हैं क्या ? इस आपत्ति की भूषणकार गजनिमीलिकान्याय से उपेक्षा नहीं कर सकते । अतः उन्हें कहना पड़ता है कि क्रिया का फलाश्रयत्वमात्र द्वितीया विभक्ति का प्रयोजक नहीं है, प्रत्युत कर्ता आदि दूसरी संज्ञाओं के अभाव १. 'अनीप्सितग्रहणं स्पष्टप्रतिपत्त्यर्थम् । तथायुक्तमित्यस्यारम्भादेवेष्टसिद्धेः' । - तत्त्वबोधिनी, पृ० ४०९
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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