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________________ कर्म-कारक १५९ रोककर षष्ठी होती है, उसी प्रकार 'भोजनाय यतते' में भी द्वितीया के स्थान में चतुर्थी होती है' । 'पर्वतादव रोहति' में जो कालापक सुषेण के द्वारा पूर्वोक्त लक्षण से पर्वत के कर्मत्व का प्रसंग आने की आशंका उठायी गयी है, उसका परिहार भी यह लक्षण करता है | अवरोहण क्रिया का वाच्यार्थ है - उत्तरदेश - संयोग, न कि विभाग । उक्त संयोगरूप फल पूर्वदेश में नहीं रहता कि पर्वत को कर्म कहें । पतन - क्रिया के समान इसके अकर्मकत्व ( अधोदेशरूप कर्म के धात्वर्थनिविष्ट होने पर ) या सकर्मकत्व ( संयोगमात्र फल विवक्षित होने पर ) की व्यवस्था होती है २ । द्वितीय लक्षण की आलोचना के समय जो 'चैत्रश्चैत्रं गच्छति' के प्रयोग की आपत्ति दिखलायी गयी थी, उसका परिहार यह लक्षण नहीं कर पाता । भूषण में कहा गया है ( पृ० १०१ ) कि 'भूमि प्रयाति विहगो विजहाति महीरुहम्' में कर्मत्व की उपपत्ति होने के साथ-साथ 'आत्मानं त्यजति' इत्यादि अनिष्ट प्रयोग भी होने लगेंगे । इसलिए प्रस्तुत लक्षण में 'पर - समवेत' विशेषण लगा देना अनिवार्य है । चूँकि गम्-धातु का धात्वर्थं फल ( संयोग ) चैत्र में है, अतः कर्मत्व की आपत्ति हो सकती थी । किन्तु चैत्र में जो धात्वर्थफल अवस्थित है वह उसके स्वसमवेत व्यापार का फल है । यह कहा जा चुका है कि प्रकृत्यर्थ से भिन्न को 'पर' कहते हैं । इस प्रकार 'पर-समवेत' विशेषण कर्मलक्षण का परिष्कार करता है । इस लक्षण के अनुसार 'भूमि प्रयाति' में द्वितीया विभक्ति धारण करने वाले भूमि-शब्द की अपेक्षा से ही भिन्नता दिखलायी जाती है - 'भूमि - भिन्न-समवेत-भूमिवृत्तिसंयोग- जनक-स्पन्दानुकूलकृतिमान् ' । यह नैयायिकों का वाक्यबोध है । यह नहीं कह सकते कि जैसे उभयकर्मज संयोग के स्थान में 'मल्लो मल्लं गच्छति' का प्रयोग होता है, वैसे ही 'चैत्रश्चेत्रं गच्छति' या 'मल्लः स्वं गच्छति' का प्रयोग भी सम्भव हो सकेगा । दोनों मल्लों में स्थित क्रिया से प्रथम प्रयोग उपपन्न होता है । एक मल्ल से भिन्न दूसरे मल्ल में समवेत क्रिया प्रथम मल्ल में स्थित संयोग को उत्पन्न करती है; अर्थात् यहाँ गमन-क्रिया स्वसमवेत नहीं, परसमवेत ही है । किन्तु जब चैत्र या मल्ल एकत्व संख्या से विशिष्ट हों ( एक ही चैत्र या एक ही मल्ल हो ) तो परसमवेतत्व की उपपत्ति नहीं हो सकती । नैयायिकों के शब्दों में- परसमवेत क्रिया की आश्रयता 'स्व' में बाधित हो जाती है । इसीलिए स्वं 'गच्छति' इत्यादि प्रयोग नहीं होते । यह १. का० च०, व्याख्या, पृ० २२ । २. व्या० द० इ०, पृ० २७३ पर उद्धृत सुषेण का मत 'क्रियावच्छेदकं यत्र फलं कर्त्रा विवक्षितम् । तदैव कर्मधातुश्च फलानुक्तावकर्मकः' ॥ ३. 'स्वभिन्नसमवेतो यो धात्वर्थस्तन्निष्ठं यद्धात्वर्थत्वं तदवच्छेदकीभूत-धर्मवत्त्वं तत्क्रियाकर्मत्वमित्यर्थः ' । - का० च०, व्याख्या, पृ० २२
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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