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________________ १५२ संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन जुहोति में हवन-कर्म रहने से दूसरी स्थिति है। ) किन्तु यह साध्यत्व भाव्य के अर्थ में नहीं है, इसका अर्थ है--संस्कार्य मात्र । दूसरे शब्दों में-जैसे किसी वस्तु को झाड़-पोंछ देने से उसमें निर्मलतारूप संस्कार आ जाता है तथा वह किसी दूसरे सामान्य उद्देश्य की सिद्धि में उपयुक्त हो सकती है; उसी प्रकार व्रीहि का अवघात करके उसे संस्कृत ( संसारयुक्त ) किया जाता है, जिससे वह अदृष्ट-विशेष का साधन बन सके । संस्कार-द्रव्य तदनुसार सक्तु-विधि में संस्कार्य द्रव्य न रहने के कारण इसका विभक्तिव्यत्यय करना अनिवार्य है, जब कि व्रीहि के संस्कार्य होने के कारण द्वितीया के अर्थ में कोई असंगति नहीं है। इस प्रकार द्वितीयार्थ साध्यत्व को शक्तिविशेष या कर्मत्वशक्ति के रूप में ग्रहण किया गया है । मीमांसकों की यह मान्यता ही उपर्युक्त जयन्त तथा पुरुषोत्तम के विवेचनों में 'क्रियासाध्य कर्म' का उपजीव्य है, ऐसा अनुमान होता है। मीमांसकों के इस विवेचन का संक्षिप्त रूप वैयाकरणभूषण (पृ० ११४-५ ) तथा लघुमञ्जूषा ( पृ० १२२५-६ ) में भी समाविष्ट है। किन्तु दोनों के निष्कर्षों में अन्तर है । भूषणकार साध्यत्व को शक्तिविशेष मानकर भी कर्मत्वशक्ति को वाच्य समझते हैं । असंगति यह है कि कर्म में द्वितीया का नियम मानना तथा साध्यत्व को द्वितीयार्थ स्वीकार करना-दोनों नहीं चल सकता; वह भी तब जब कि 'सक्तुन्' में करणार्थक द्वितीया भी सम्भव है। नागेश इसका परिहार करते हैं कि यह सब कुछ वेद में ही होता है, लोक में नहीं । वेद में कर्मत्व-शक्ति अदृष्ट-विशेष के साधन के रूप में जो संस्कार्य द्रव्य होता है, उसी के समानाधिकरण होती है। द्वितीयार्थ का यही स्वरूप है। नव्यन्याय में कर्मलक्षण तथा उनकी आलोचना अब हम नव्यन्याय के आचार्यों के द्वारा विवेचित कर्मत्व का निरूपण करें, क्योंकि नव्यव्याकरण में पूर्वपक्ष के रूप में मत बहुधा उद्धृत हैं । सामान्य रूप से नैयायिकों ने कर्म के सम्बन्ध में निम्नलिखित लक्षण दिये हैं (१) करणव्यापारविषयः कर्म-चूड़ामणि-कृत न्यायसिद्धान्तमञ्जरी की टीका न्यायसिद्धान्तदीप में शशधर ने इसकी स्थापना की है तथा न्याय के अन्य ग्रन्थों में १. (क) 'यद्यपि व्रीहयः सिद्धा एव क्रियायाः साधनानि च, तथापि अदृष्टविशेषसाधनत्वरूपसंस्कार्यत्वमेवात्र साध्यत्वं बोध्यम्'। -ल० म०, पृ० १२२६ (ख) 'सक्तूनां तु भूतभाव्युपयोगरहितत्वान्न समीहितत्वमस्ति' । -शास्त्रदीपिका, पृ० ११० २. 'तेषामयं भावः-वेदे कर्मत्वशक्तिः प्रागुक्तसंस्कार्यत्वसमानाधिकरणव इत्येतावता तस्य ( संस्कार्यत्वस्य ) द्वितीयार्थत्वम्'। -ल० म०, पृ० १२२६ ३. द्रष्टव्य-न्यायकोश, पृ० २०८, २१३-४ ।
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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