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________________ कर्म-कारक १५१ ओदनः स्वयमेव' । ओदन ( कर्म ) में यदि स्वगत क्रिया नहीं होती तो क्रियारहित होने की स्थिति में कर्ता बनने की क्षमता भी उस में नहीं रहती। न वह कर्ता बनता, न कर्मवद्भाव ही उपपन्न होता। इससे सिद्ध होता है कि कर्म में भी स्वगत क्रिया होती है, जिससे प्रयुज्यमान क्रिया की अपेक्षा से साध्य होते हुए भी स्वगत क्रिया की अपेक्षा से वंह साधक भी होता है, अतः उसके कारकत्व में कोई दोष नहीं । मीमांसा-दर्शन में कर्म मीमांसा-दर्शन में भी कर्म को क्रिया-साध्य माना गया है। पार्थसारथिमिश्र ने शास्त्रदीपिका ( पृ० १०९ ) में मीमांसासूत्र (२।१।१२) की व्याख्या करते हुए पाणिनि के उपर्युक्त दोनों सूत्रों के अनुरोध से साध्यत्व को द्वितीयार्थ माना है। शबर ने प्रस्तुत स्थल में 'सक्तन् जुहोति' ( तै० सं० ३।३।८।४ ) का उद्धरण देकर द्वितीया का अर्थ स्पष्ट किया है, यद्यपि इस उदाहरण में कर्मत्व के स्थान में करण-परिणाम करने की बात उठायी गयी है । इस विषय में भट्ट तथा गुरु के मतों में भेद है । भाट्ट-सम्प्रदाय का विवेचन व्याकरण में बहुत उद्धृत हुआ है । उसके अनुसार भूत पदार्थ ( सिद्ध ) को भव्य ( साध्य, क्रिया ) के उपयोग के लिए बतलाया जाता है, जिसे भूतभाव्युपयोग ( भूतं भव्यायोपयुज्यते ) कहते हैं । विधि की सर्वत्र प्रधानता होने से जहाँ कहीं भी द्रव्य का कर्म के साथ सम्बन्ध होता है द्रव्य को गुणभूत (गौण) तथा कर्म ( क्रिया ) को प्रधानभूत समझा जाता है । 'सक्तून् जुहोति' इस विधिवाक्य में होम प्रधानकर्म तथा सक्तु नामक भूत द्रव्य अप्रधान ( गुणभूत ) है । हम ऐसा नहीं कह सकते कि होम सक्तुओं के लिए है, प्रत्युत सक्तु ही होम के लिए है। सक्तु और होम का परस्पर सम्बन्ध कराना ही द्वितीया का काम है। होम के लिए अन्ततः उपयोगी ( साधक ) होने के कारण सक्तुओं में तृतीया विभक्ति ( करण-कारक ) में विपरिणाम करके 'सक्तुभिर्जुहोति' ( सक्तुभि:मं भावयेत् )- इस रूप में वाक्यार्थ किया जाता है । भूतभाव्युपयोग में भव्य से इष्ट का बोध होता है । दूसरी ओर सिद्ध पदार्थ के अन्तर्गत संस्कार्य द्रव्य को रखा जाता है। जैसे-व्रीहीनवहन्ति ( धान्य का अवघात करे )। इसका अर्थ है कि अवघात के द्वारा व्रीहियों की भावना करनी चाहिए ( अवहननेन व्रीहीन्भावयेत् ) । यह सत्य है कि व्रीहि सिद्धपदार्थ है तथा क्रिया का साधन है, तथापि उसमें द्वितीया-विभक्ति का साध्यत्व अर्थ तो है ही। ( 'सक्तन् १. 'स्मृत्या साध्याभिधायित्वं द्वितीयायाः प्रतीयते । कर्तुर्यदीप्सितं यच्च तथायुक्तमनीप्सितम् ।। तत्कर्म तद् द्वितीयार्थ इत्येवं पाणिनेः स्मृतिः । बलीयसी च साचारात्प्रयोगश्चास्ति तादृशः' । --शास्त्रदीपिका, निर्णयसागर प्रेस, १९१५, पृ० १०९ २. द्रष्टव्य-जैमिनीयन्यायमालाविस्तर ( आनन्दाश्रम सं० ) में पृ० ६७ पर दोनों का मतभेद ।
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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