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________________ १४८ संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन की ईप्सितात्मकता दिखलायी गयी है। कभी-कभी शत्र के आदेश से विपभक्षण का दण्ड मिलता है। वहाँ विषय द्वेष्य ही रहता है। ऐसे प्रसंगों में यदि यह ज्ञान हो कि कारागार-बन्धन या शत्रु द्वारा दी गयी अन्य यातनाओं की अपेक्षा विषभक्षण श्रेयस्कर है तो विष को ईप्सित कर्म सिद्ध किया जा सकता है। किन्तु इसके अभाव में यह मानना होगा कि शत्रु के शक्ति-प्रयोग के कारण ही कोई व्यक्ति अनिच्छापूर्वक विषभक्षण कर रहा है । तब इसे द्वेष्य मानने में कोई आपत्ति नहीं । भर्तहरि विषं भक्षयति' आदि द्वेष्यकर्म की व्याख्या में कहते हैं कि जैसे शरीर को रोगी बनानेवाले अहितकर पदार्थों में कर्ता की इच्छा चंचलतावश हो जाती है तथा वह भोजन के सिद्ध नियमों का भी उल्लंघन कर देता है उसी प्रकार स्वामी आदि के भय से या किसी विषम रोग के कारण विषादि में उसकी प्रवृत्ति होती है । इस प्रकार मनुष्य की इच्छा सर्वत्र विवेकपूर्वक ही उत्पन्न हो, ऐसा कोई नियम नहीं है । कभी-कभी मनुष्य चंचलतावश या अन्य कारणों से भी कुछ पदार्थों की इच्छा कर सकता है । विष के ईप्सित होने का भी कारण भय है । 'चोरान् पश्यति' में भी दर्शन-क्रिया के द्वारा चोर ईप्सित ही है। हम आगे चलकर देखेंगे कि भर्तृहरि तथा हेलाराज का अभिर्यान सभी कर्मों को ईप्सित ही सिद्ध करने का है। यह स्थान भी उसी का अंग है। काशिका में जयादित्य ने अनीप्सित के तीन उदाहरण दिये हैं --विष ( द्वेष्य ), चौर ( द्वेष्य ) तथा वृक्षमूल ( उदासीन )। ये भाष्य के उदाहरण हैं। शब्दकौस्तुभ में विष को छोड़कर शेष दोनों उदाहरण देनेवाले भट्टोजिदीक्षित सिद्धान्तकौमुदी में 'ओदनं भुजानो विषं भुङ्क्ते' यह उदाहरण भी देते हैं। इसमें ओदन ईप्सित तथा विष अनीप्सित ( द्वेष्य ) कर्म है। यहाँ टीका करते हुए तत्त्वबोधिनीकार भाष्य के समान ही पूर्वपक्ष उठाते हैं कि विष तो दो कारणों से ईप्सित हो सकता है --(१) व्याधि से पीड़ित मनुष्य का मरण श्रेयस्कर समझकर विष-भक्षण करना तथा ( २ ) भ्रम के कारण मिष्टान्नादि समझकर उसमें निहित विष का भक्षण । किन्तु यहां विष ईप्सित नहीं है, क्योंकि प्रसंग दूसरा है। मनुष्य मरना नहीं चाहता, किन्तु शत्रु से निगृहीत होने से विष खा लेता है ---यह तात्पर्य है । यद्यपि दीक्षित के इस उदाहरण में केवल 'विषं भुङ्क्ते' से ही काम चल जाता तथापि तथा युक्तम्' ( ईप्सित १. 'एवं पराधीनतया द्वेष्यमपि विषं भक्षयतीत्युपपन्नः प्रयोगः इति भावः' । -द्रष्टव्य, उद्योत २, पृ० २६३ २. 'अहितेषु यथा लोल्यात्कर्तुरिच्छोपजायते । विषादिषु भयादिभ्यस्तथैवासी प्रवर्तते' ॥ -वा० व० ३।७८० ३. हेलाराज, उक्त कारिका पर (पृ० २९६ )-'लोल्यादिति । न प्रेक्षापूर्वकारिता घटिता सर्वत्रेप्सा, अपि तु प्रकारान्तरेणापि सम्भवतीत्यर्थः' । ४. तत्त्वबोधिनी, पृ० ४०९ ।
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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