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________________ कर्म-कारक १४७ मृदनाति । इनमें चोर, अहि तथा कंटक भयजनक होने के कारण अनीप्सित अर्थात् द्वेष्य हैं । ईप्सिततम-सूत्र के द्वारा इनकी कर्मसंज्ञा अनिष्ट है, क्योंकि दर्शनादि-क्रिया के द्वारा इन्हें व्याप्त करना सम्भव नहीं है । द्वेष्य तथा उदासीन पर्युदास-व्याख्या के अन्तर्गत इस प्रकार भाष्यकार को उदासीन तथा द्वेष्य दोनों की कर्मसंज्ञा अभिमत है। कैयट भी इसका समर्थन करते हैं कि जिस प्रकार अधर्म, अनृत इत्यादि शब्दों के उत्तरपदार्थ ( धर्म, ऋत= सत्य ) के प्रतिपक्ष में स्थित पदार्थों का प्रतिपादन पर्युदास के कारण होता है, उसी प्रकार अनीप्सित शब्द से भी ईप्सितभिन्न द्वेष्य और उदासीन का ग्रहण होता है। तदनुसार परवर्ती आचार्यों ने अनीप्सित कर्म में ही इन दो भेदों का निरूपण किया है। दार्शनिक दृष्टि से द्वेष्य पदार्थ में दुःख का भाव रहता है जो सांख्यों के मत से रजोगुण के उद्रेक से व्यक्त होता है । उदासीन कर्म में दूसरी ओर मोहस्वभाव तमोगुण के उद्भव से प्रकट होता है । ईप्सिततम में निश्चय ही सुखात्मकता अर्थात् सत्त्वोद्रेक होता है, अन्यथा उसे प्राप्त करने की इच्छा का उदय ही न हो' । इस प्रकार सांख्यों के त्रिगुणवाद का सम्यक प्रतिफलन कर्म के उक्त रूपों में देखा जा सकता है। इसी सूत्र के अन्तर्गत पतञ्जलि ने 'विषं भक्षयति' वाक्य में स्थित विष के कर्मत्व का विवेचन किया है, जो अपना एक पृथक इतिहास रखता है । विष निश्चय ही सबों के लिए अनीप्सित या द्वेष्य है । प्राण जाने के भय से कोई मनुष्य विष-भक्षण करना नहीं चाहता । तथापि कभी-कभी विषभक्षण अभिमत ( ईप्सित ) होता है, जिससे ईप्सिततम के कारण ही इसमें कर्मसंज्ञा हो सकती है । जो व्यक्ति दुःख की वेदना सह नहीं सकता वह आगामी काल में आनेवाले अन्य दुःखों की वेदना की अपेक्षा विषभक्षण को ही अच्छा समझता है । जैसे सुख के साधन ईप्सित के रूप में प्रसिद्ध हैं वैसे ही दुःखनिवृत्ति के साधन भी ईप्सित ही हैं । उक्त स्थिति में विषय में सचमुच दुःखनिवृत्ति की क्षमता है—यह जानकर ही वह व्यक्ति उसका · ग्रहण करता है । इस प्रकार विष ईप्सित कर्म के उदाहरण में आता है। किन्तु इससे यह निष्कर्ष नहीं निकालना चाहिए कि पतञ्जलि इसे द्वेष्य कर्म बिलकुल नहीं मानते । सच तो यह है कि अनीप्सित का उन्होंने यही प्रथम उदाहरण दिया है और सर्वप्रथम अनीप्सित को द्वेष्य के रूप में ही देखा है। उनका 'कस्यचित्' प्रयोग भी इसका साक्ष्य है । उक्त उदाहरण में आत्महत्या का प्रसंग है, इसी से विष १. (क) 'सुखसाधने एव लोके ईप्सितत्वं प्रसिद्धम्' । -भाष्यप्रदीपोद्योत २, पृ० २६३ (ख) 'तत्र यत्सुखहेतुस्तत्सुख त्मकं सत्त्वम्, यद् दुःखहेतुस्तद् दुःखात्मकं रजः, यन्मोहहेतुस्तन्मोहात्मकं तमः' । ___-सांख्यतत्त्वकौमुदी, कारिका १३ २. 'विषभक्षणमपि कस्यचिद् ईप्सितं भवति'। -भाष्य २, पृ. २६३
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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