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________________ कर्तृ कारक १३१ भट्टाचार्य ने भी अपने विभक्त्यर्थ-निर्णय (पृ० १३६-७ ) में इस विषय का विवेचन किया है। वैयाकरणभूषण में नव्यन्याय के कर्तलक्षण का अनुवाद करके खण्डन किया गया है। नैयायिकों के अनुसार कर्ता कृति का आश्रय है, जिसका समर्थन योगार्थ के बल से होता है ( कृ = कृति, तृच = आश्रय )। आश्रयांश की प्राप्ति इस प्रकार कर्तृभूत देवदत्तादि अर्थात् प्रकृति से हो जाने के कारण वे लोग कृति को कर्ततृतीया का अर्थ मानते हैं, जो वैयाकरणों के 'आश्रयः तृतीयार्थः' इस मत के विपरीत है। कौण्डभट्ट तथा नागेश अपने धात्वर्थ-विवेचन के अवसर पर मान्यता देते हैं कि कृति भी धातुलभ्य ही है। यदि कृति को तृतीयार्थ माना जाय तो 'रथेन गम्यते' यहाँ अचेतन रथ की स्थिति में कृति की व्यवस्था कठिन हो जायगी। नागेश कहते हैं कि यदि यहाँ अचेतन में लक्षणा का आश्रय लें तो यह अनुचित है, अतः आश्रयार्थ में लक्षणा ठीक नहीं। अन्तिम बात यह है कि कृ-धातु का अर्थ केवल कृति ही नहीं है । कृति का अर्थ यत्न है, जिससे कृ-धातु के अकर्मक होने का प्रसंग होगा । इस स्थान में यह ज्ञातव्य है कि कुछ लोग धात्वर्थ की सत्ता चेतनमात्र में मानते हैं । अचेतन पदार्थों में दो प्रकार से कर्तत्व व्यवस्थित हो सकता है--(१) चेतनता का आरोप करके या (२) चेतननिष्ठ क्रिया का आरोप करके । इसका विवेचन यास्क ( निरुक्त ७७ ) तथा पसंजलि' ( महाभाष्य, ४।१।२७ ) ने भी किया है। नैयायिक लोग अचेतन में गौण कर्तृत्व स्वीकार करते हैं, किन्तु वैयाकरणों को इसमें गौणता मानने की आवश्यकता नहीं; क्योंकि धातु के द्वारा उपात्त व्यापार का आश्रय कर्ता होता है। दूसरी ओर नैयायिक कृति के आश्रय के रूप में कर्तलक्षण स्वीकार करते हैं, जिससे अचेतन के कर्तृत्व में लक्षणा के बिना काम नहीं चलता। कृति एक प्रवृत्ति या प्रयत्न है, जो चेतन में ही सम्भव है। दूसरी ओर, व्यापार उन अवयवभूत क्रियाओं को कहते हैं जो पूर्वापर के क्रम से एक ही क्रिया में उत्पन्न होती है; जैसे'पचति' में अधःसन्तापन, फूत्कार, ओदन-धारण इत्यादि । इनमें से किसी भी व्यापार का निर्देश धातु के द्वारा विवक्षित हो सकता है और वैसी स्थिति में तत्तद् व्यापारों को धारण करने के कारण अचेतन को भी कर्ता कहा जा सकता है, जिसमें गौण और मुख्य के भेद का प्रश्न ही नहीं। नागेश ने लघुमंजूषा में तृतीया-विभक्ति का विवेचन करते हुए 'कर्तृकरणयोस्तृतीया' सूत्र का उद्धरण देकर कर्ता तथा करण इन दोनों कारकों का पूर्वापर-क्रम से निरूपण किया है। यही दशा उनके लघुशब्देन्दुशेखर की भी है। मंजूषा में निरूपित कर्तृशक्ति का सविस्तर परिष्कार इस प्रकार है- 'सा शक्तिश्च कर्तृप्रत्ययसमभिव्याहारे १. ल० म०, पृ० १२४४ . २. 'व्यापारो भावना सैवोत्पादना सैव च क्रिया। कोऽकर्मकतापत्तेनं हि यत्नोऽर्थ इष्यते' ॥ -वै० भू० कारिका ४
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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