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________________ १३० संस्कृत व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन में विरोध है; जिससे सिद्ध होता है कि मनोमयत्वादि गुण से विशिष्ट जीव उपासक है, उपास्य नहीं । तात्पर्य यह हुआ कि व्यास के निर्णयानुसार एक ही वस्तु को कर्म तथा कर्ता नहीं कहा जा सकता, जब कि वैयाकरणों के मत से यह संभव है। इस प्रकार व्यास के निर्णय का विरोध होता है । इसके अतिरिक्त जगत्कारण ब्रह्म को शरीर से अधिक ( ऊपर ) दिखलाने के लिए 'आत्मा वारे द्रष्टव्यः' ( बृ० उप० २।४।५ ) इत्यादि श्रुतिवाक्यों में कर्तृत्व तथा कर्मत्व के भेद को आधार माना गया है। 'भेदव्यपदेशात्' ( ब्र० सू० १।३।५ ) सूत्र में कहा गया है कि प्राणधारी मुमुक्षु तथा पृथ्वी-स्वर्गादि के आयतन स्वरूप प्राप्य या ज्ञेयभाव का उपदेश ( तमेवैकं जानथात्मानम् ) होने से भेद की व्यवस्था होती है। ऐसी स्थिति में वैयाकरण-मत किस प्रकार ग्राह्य हो सकता है ? ___ इस पर कौण्डभट्ट समाधान देते हैं कि वैयाकरण-मत तथा वेदान्त के उक्त निर्णय में कोई विरोध नहीं है। तथ्य यह है कि जीव में ही कर्तृत्व तथा कर्मत्व दोनों है । जब वह ज्ञेय या प्राप्य कहलाता है तब उसमें कर्मत्व की व्यवस्था होती है और जब आख्यात के द्वारा उसका अभिधान होता है (धातुनोक्तक्रिये कारके ) तब वह कर्ता भी होता है । वैयाकरणों का यह सिद्धान्त नहीं कि किसी पदार्थ को विवक्षा से युगपत् ( एक ही साथ ) कर्तृत्व तथा कर्मत्व दोनों की प्राप्ति हो जायगी। ऐसा मानने पर 'विप्रतिषेध-परिभाषा' प्रक्रान्त होगी तथा परवर्तिनी कर्तृसंज्ञा कर्मसंज्ञा को रोक देगी। तब तो 'एतम्' में द्वितीया-विभक्ति होती ही नहीं। अतएव बुद्धि की अवस्थाओं के द्वारा भेद-कल्पना करके एक ही पदार्थ को पृथक्-पृथक् शब्दों की सहायता से विभिन्न कारकों में रखा जाता है । इस पृथक् शब्द-व्यवस्था के कारण परवर्तिनी संज्ञा के द्वारा किसी पूर्ववर्तिनी संज्ञा के बाध का प्रश्न ही नहीं उठता। इसी से 'आत्मानमात्मना हन्ति' तथा 'एतमितः प्रेत्याभिसम्भवितास्मि' इत्यादि वाक्यों की व्यवस्था होती है । निष्कर्षतः जीव के बोधक शब्द तथा परमात्मा के बोधक शब्द में जो विरोध है वही उन दोनों में भेद का कारण है२ । भेद के व्यपदेश या निर्देश का यही रहस्य है । वास्तविक ( पारमार्थिक ) भेद नहीं होने पर भी शाब्दिक विरोध या भेद तो है ही। ___ इस प्रसंग में भामती तथा कल्पतरु में किये गये कर्तृत्व के उपपादन का भी उद्धरण कौण्डभट्ट देते हैं। दोनों ही स्थानों में 'घटो भवति' में घट के कर्तृत्व की सिद्धि में कहा गया है कि घटगत व्यापार धातु के द्वारा उपात्त है, अतः कर्ता का यह लक्षण उस पर अच्छी तरह घट जाता है-'धातूपात्तव्यापाराश्रयः कर्ता' 3 । गिरिधर १. द्रष्टव्य-उक्त सूत्र पर शांकरभाष्य-'तथोपास्योपासकभावोऽपि भेदाधिष्ठान एव'। २. 'शब्दविरोधद्वारा स भेदहेतुः' । -वै० भू०, पृ० १०७ ३. वै० भू०, पृ० १०७॥
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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