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________________ १०६ संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन का कर्तृत्व हम ऊपर देख आये हैं जहाँ उन कारकों के स्थान पर कर्ता काम कर रहा है; यथा---स्थाली पचति । किन्तु जो मूलतः कर्ता है उसे हम बदल नहीं सकते। यह भी उसकी प्रधानता का सूचक है । (६ ) प्रविवेके च दर्शनात् -कर्ता के अभाव में दूसरे कारक नहीं ठहर सकते, जब कि दूसरे कारकों के अभाव में कर्ता देखा जाता है। यथा-घटोऽस्ति, भवति, विद्यते । यहाँ कर्ता अकेला ही क्रिया का सम्पादक है २ । किन्तु यदि कर्ता नहीं रहे तो दूसरे कारक क्रियासिद्धि कभी नहीं कर सकते—यही कर्ता की प्रधानता या स्वतन्त्रता है। इन युक्तियों से भर्तृहरि सिद्ध करते हैं कि कर्ता दूर रहकर भी क्रिया का उपकार क्यों नहीं करे ( क्योंकि करण-कारक क्रियासिद्धि के सर्वाधिक निकट होता है ), वह स्वतन्त्र रहेगा ही। हेलाराज इन युक्तियों को भाष्य की उपर्युक्त पंक्ति की विश्लेषणात्मक व्याख्या मानते हैं। उनके ही शब्दों में ... इति समस्याभिहितं भाष्यं व्यस्य व्याख्यातम्' । कुछ भी हो, ये युक्तियाँ कर्ता की स्वतन्त्रता का सम्यक् उपपादन करती हैं। प्रयोज्य का कर्तृत्व पतञ्जलि कर्तलक्षण में प्रयुक्त 'स्वतन्त्र' शब्द के विषय में एक शंका उठाते हैं कि यदि स्वतन्त्र ( स्वप्रधान ) को ही कर्तसंज्ञा होती तब तो प्रयोज्य व्यक्ति को कर्ता नहीं कहा जा सकता, क्योंकि प्रयोज्य स्वतन्त्र नहीं होता---प्रयोजक की प्रधानता के अधीन काम करता है-'पाचयति ओदनं देवदत्तः (प्रयोजक) सूपकारेण (प्रयोज्य)' । फलतः हमें प्रयोज्य कर्ता मानने के लिए उपसंख्यान करना पड़ेगा; जैसे-स्वतन्त्रः कर्ता ( प्रयोज्यश्चेत्युपसंख्यानम् ) । किन्तु ऐसी बात नहीं है, प्रयोज्य भी स्वतन्त्र ही है। यदि वह स्वतन्त्र नहीं होता तो दूसरे कारकों के विनियोग द्वारा क्रियासिद्धि नहीं कर सकता और प्रयोज्य के द्वारा काम न किये जाने की स्थिति में भी ( अकुर्वत्यपि ) 'प्रयोजकः कारयति' ऐसा प्रयोग होने लगता । फलस्वरूप 'कारयति' प्रयोग प्रयोज्य के काम करने पर ही होता है, जिससे उसकी स्वतन्त्रता बनी रहे। तब यह कहना कदाचित् उचित हो कि प्रयोज्य काम करे ( क्रियासिद्धि करे ) तब स्वतन्त्र है, काम न करे तब परतन्त्र है । इसलिए प्रयोजक का संनिधान रहने पर भी प्रयोज्य स्वार्थ १. 'कन्तरं हि क्रियां निवर्तयत् प्रतिनिहितं नोच्यते । तस्याप्यर्थिनः समर्थस्यापर्युदस्तस्याधिकारात्' । -वही २. 'यद्यपि अत्राधिकरणादयः सम्भवन्ति तथापि नान्तरीयकास्ते शब्दव्यापारादप्रतीयमानाः'। -वही पृ० ३१२ ३. 'यदि प्रयोज्यस्य स्वातन्त्र्यं न स्यान्नवासौ साधनान्तरविनियोगादिनां क्रियां कुर्यात् । तथा चाकुर्वत्यपि प्रयोज्ये प्रयोजक: कारयतीति व्यपदिश्यत' । –कैयट २, पृ० २७८
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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