SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 125
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्तृ-कारक १०५ 'प्रागन्यतः शक्तिलाभान्यग्भावापादनादपि । तवधीनप्रवृत्तित्वात्प्रवृत्तानां निवर्तनात् ॥ अदृष्टत्वात्प्रतिनिधेः प्रविवेके च दर्शनात् । आरादप्युपकारित्वे स्वातन्त्र्यं कर्तुरिष्यते ॥ (१) प्रागन्यतः शक्तिलाभात-क्रियासिद्धि के निमित्त कारण के रूप में विद्यमान कर्ता की अपनी शक्ति होती है । यह शक्ति उसे दूसरे निमित्तों में शक्ति उत्पन्न होने के पूर्व ही मिल जाती है, क्योंकि अन्य निमित्त ( कारक ) जहाँ अपनी-अपनी शक्ति कर्ता-कारक से प्राप्त करते हैं, कर्ता ऐसा नहीं करता ( निमित्तान्तर से शक्ति ग्रहण नहीं करता ) । वह स्वयं क्रियासिद्धि के लिए पर्याप्त शक्ति रखता है। इसलिए केवल सार्थक शब्द होने से ही-अभिधेयमात्र में ( अर्थित्वात् )—कर्ता के आधार पर प्रथमा विभक्ति होती है-गौः, अश्वः । इनमें 'अस्ति' या 'विद्यते' क्रिया ही पर्याप्त है। (२) न्यग्भावापादनादपि - दूसरे कारक कर्ता के समक्ष न्यग्भूत अर्थात् सहकारी के रूप में आते हैं । कर्ता क्रियासिद्धि के लिए उन्हें नियुक्त करता है तथा वे अप्रधान बनकर उसकी अपने लक्ष्य की प्राप्ति में सहायता करते हैं। यह कर्ता की प्रधानता का ही द्योतक है। ( ३ ) तदधीनप्रवृत्तित्वात्-इससे स्पष्ट है कि अन्य कारकों की प्रवृत्ति कर्ता कारक के व्यापार के अधीन होती है। कर्ता तथा करणादि कारकों के बीच प्रयोजकप्रयोज्य का सम्बन्ध हैं जहाँ कर्ता साक्षात् प्रवर्तक है । जिसके अधीन दूसरों के क्रियाकलाप या व्यापार सञ्चालित हों उसे प्रधान कहना सर्वथा न्यायोचित है । (४) प्रवृत्तानां निवर्तनात्-चूंकि कर्ता का व्यापार क्रिया की सिद्धि के लिए होता है अतः इस विषय में वह पूर्णतः स्वाधीन है कि जिस किसी साधन का चाहे वह उपयोग करे या न करे । यही नहीं, जब वह देखता है कि करणादि कारक अपने अधिकार-क्षेत्र से बाहर निकल कर काम करने पर तुले हैं तो वह उन प्रवृत्त कारकों को रोक भी देता है । इसके अतिरिक्त जब कर्ता फलप्राप्ति के बाद स्वयं निवृत्त होता है तब उसके अधीन काम करनेवाले दूसरे कारक भी साथ-ही-साथ निवृत्त हो जाते हैं । इस प्रकार साधनान्तर की प्रवृत्ति-निवृत्ति का नियमन करने के कारण कर्ता प्रधान कहा जाता है। (५) अदष्टत्वात्प्रतिनिधेः-करणादि कारकों का प्रतिनिधि कर्ता कारक हो सकता है, किन्तु कर्ता का कोई प्रतिनिधि नहीं देखा गया है, जो उसका स्थानापन्न हो सके । किसी क्रियाविशेष की सिद्धि के लिए एक ही कर्ता हो सकता है। यदि वह बदला जाता है तो समझना चाहिए कि क्रिया में भी परिवर्तन होगा। दूसरे कारकों १. 'कर्ता तु फलार्थमीहमानः स्वयं व्यापारवान् । अतिप्रवृत्तानि करणादीनि निवर्त्यन्ते कर्ता' । -हेलाराज ( उक्त कारिकाओं की व्याख्या में )
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy