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________________ प्राकृत 61 भी, कायम रहा; अर्थात् पालि के रूप में (ईसा पूर्व की शतियों में) शौरसेनी प्राकृत रूप में (ईसा की आरम्भिक शतियों में) 'प्राकृत' या संकुचित अर्थ में तथाकथित 'महाराष्ट्री प्राकृत' के रूप में (लगभग 400 ई० के आस-पास) तथा शौरसेनी अपभ्रंश के रूप में (400 ई० सं० से 1000 ई० सं० तक के बाकी काल में) प्रवाहित होती रही। मध्य आर्य भाषा के प्रथम स्तर मध्यम अघोष व्यंजनों का सघोष रूप दिखाई पड़ता है। बाद में सघोष ध्वनियाँ ऊष्मीभूत ध्वनि की तरह उच्चरित होने लगी और बाद में उच्चारण की कठिनाई के कारण लुप्त हो गयीं। अतः शुक-सुअ, शोक-सोअ, नदी-नई की विकास की स्थिति में एक अन्तवर्ती अवस्था भी रही होगी; यानी शुक से सुअ होने के पहले शुग और सुग ये दो अवस्थाएं जरूर रही होंगी। महाराष्ट्री प्राकृत में सभी एकक स्थिति स्वरान्तर्हित स्पर्श (Inter Vocal Single Stok) पहले से ही लुप्त या अभिनिहित पाए जाते हैं। यह महाराष्ट्री के विकास की पश्चकालीन अवस्था का द्योतक है। वस्तुतः महाराष्ट्री महाकाव्यों की भाषा है। उनके दो काव्य प्रमुख रूप से हमारे सामने हैं-1. 'रावण वहो' और 2. 'गउड वहो' । संस्कृत नाटकों में सर्व-प्रथम कालिदास ने अभिज्ञानशाकुन्तलम् नाटक में महाराष्ट्री का प्रयोग किया है,23 अनन्तर राजशेखर की कर्पूरमंजरी24, शूद्रक के मृच्छकटिकम् आदि में इसका प्रयोग पाया जाता है। दण्डी को छोड़कर पूर्व काल (ई० सन 1000 के पूर्व) के अलंकार शास्त्र के पण्डित महाराष्ट्री से अपरिचित थे। ध्वनि परिवर्तन की दृष्टि से महाराष्ट्री प्राकृत अत्यन्त समृद्ध है। पिशेल के शब्दों में 'न कोई दूसरी प्राकृत साहित्य में और नाटकों के प्रयोग में कविता इतनी अधिक प्रयोग में लाई गई है और न दूसरी प्राकृत के शब्दों में व्यंजन इतने अधिक और इस प्रकार से निकाल दिए गए हैं कि अन्यत्र कहीं यह बात देखने में नहीं आती.... --- | ये व्यंजन इसलिए हटा दिए गए कि इस प्राकृत का प्रयोग सबसे अधिक गीतों में किया जाता था; अधिकाधिक लालित्य लाने
SR No.023030
Book TitleHemchandra Ke Apbhramsa Sutro Ki Prushthabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamanath Pandey
PublisherParammitra Prakashan
Publication Year1999
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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