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________________ 48 हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि अशोक के शिलालेखों की भाषा वस्तुतः पालि काल में ही प्राकृतों का प्रयोग स्पष्ट हो चला था। भारतीय आर्य भाषा के मध्य स्तरीय विकास में (200 ई० पू० से 600 ई०) प्राकृत का विशेष महत्व है। प्राकृत का प्राचीनतम स्वरूप जानने के लिए हमें साहित्यिक प्राकृत, शिलालेखों की प्राकृत, नाटकों की प्राकृत और भारत से बाहर की प्राकृतों की तुलनात्मक दृष्टि से अध्ययन करने की आवश्यकता है। इससे प्राकृत सम्बन्धी ज्ञान स्पष्ट हो सकता है। शिलालेखों की प्राकृत तत्कालीन भाषा के स्वरूप जानने में परम सहायक हो सकती है। इन लेखों के ज्ञान से बुद्ध और महावीर के काल की भाषा की परिस्थिति का चित्र उपस्थित होता है। मानसेरा शिलालेख की अपेक्षा शाहबाजगढ़ी शिलालेख में उत्तर पश्चिम अञ्चल की भाषा का रूप अधिक शुद्ध है। भारत से बाहर की प्राकृत और उत्तर कालीन खरोष्ठी लेखों का सम्बन्ध भी उत्तर के लेखों के साथ ही है । प्राचीन भारतीय आर्य भाषा के स्वर उत्तर-पश्चिम की भाषा में साधारणतया सुरक्षित हैं। मुख्यतया निम्नलिखित स्वर विकृतियाँ दिखाई देती हैं ऋ का विकास दो तरह से होता है - रि, रु और कहीं 'र' भी होता है। इस 'र' के प्रभाव से अनुगामी दन्त्य का मूर्धन्य शाहबाज गढ़ी में होता है, मानसेरा में ऐसा नहीं होता शाह० - मुग, किट, ग्रहथ, बुढेषु, ० - म्रिग (मृग), वुधेसु (वृद्धेषु) । मान० प्रायः स्वरान्तर्गत असंयुक्त व्यंजन मूल रूप में ही सुरक्षित रहता है। निय प्राकृत में कुछ विशेष परिवर्तन होता है । स्वरान्तर्गत क, च, ट, त, प, श, ष का घोष भाव होता है, और इन घोष वर्णों का घोष भाव होता है। सामान्यतया त्व और द्व के अशोक शिलालेखों में त ( गिरनार में त्प) और दुव (गिरनार में द्व, शाहबाजगढ़ी
SR No.023030
Book TitleHemchandra Ke Apbhramsa Sutro Ki Prushthabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamanath Pandey
PublisherParammitra Prakashan
Publication Year1999
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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