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________________ संपादकीय . भारतीय आर्यभाषा को विकास की दृष्टि से प्राचीन, मध्यकालीन एवं आधुनिक तीन भागों में विभक्त किया गया है। आर्यभाषा के इन तीनों रूपों में से प्राकृत का सम्बन्ध मध्यकालीन आर्यभाषा से है। वस्तुतः भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से एक भाषा का युग तभी तक माना जाता है जब तक कि वह सामान्य लोकभाषा के रूप में अथवा जीवित भाषा के रूप में लोगों द्वारा प्रयुक्त होती है, उसमें साहित्यिक रचना हो भी सकती है और नहीं भी हो सकती है। ज्यों ही सामान्य लोकभाषा के रूप में जनता द्वारा किसी भाषा का प्रयोग बन्द हो जाता है, त्यों ही उस भाषा का युग समाप्त हो जाता है, चाहे उस भाषा में साहित्यिक रचना शताब्दियों तक होती रहे। मध्यकालीन आर्यभाषा को भी तीन युगों में विभक्त किया गया है पाली युग (500 ई० पू० से 1 ई० तक), प्राकृत युग (1 ई० से 500 ई० तक) तथा अपभ्रंश युग (500 से 1000 ई० तक)। इन तीनों रूपों में से अन्तिम रूप अपभ्रंश भाषा का है जो आधुनिक सभी भारतीय आर्यभाषाओं का मूल स्रोत माना जाता है। हिन्दी का तो अपभ्रंश से बहुत गहरा सम्बन्ध है। वस्तुतः हिन्दी भाषा का सम्यक् एवं यथार्थ स्वरूप समझना अपभ्रंश के अध्ययन के बिना अत्यन्त ही कठिन है। अपभ्रंश भाषा के विषय में विशद रूप से समुचित ज्ञान हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों से ही होता है। उन्होंने अपने प्राकृत व्याकरण के आठवें अध्याय के चतुर्थ पाद के 329वें सूत्र से 448वें सूत्र तक अपभ्रंश भाषा एवं व्याकरण के नियमों का निर्देश किया है और प्रयोगों के उदाहरणार्थ अपभ्रंश दोहों को उद्धृत भी किया है। कुमारपाल चरित के अष्टम सर्ग में उनके द्वारा रचित श्लोक भी अपभ्रंश भाषा का वैज्ञानिक स्वरूप प्रस्तुत करते हैं। हेमचन्द्र (1088-1172 ई०) जैनों के आचार्य थे तथा सिद्धराज एवं कुमार पाल जैसे राजाओं के गुरु ।। वे संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश
SR No.023030
Book TitleHemchandra Ke Apbhramsa Sutro Ki Prushthabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamanath Pandey
PublisherParammitra Prakashan
Publication Year1999
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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