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________________ प्राकृत 25 श्रावस्ती, द्राविडी, औद्रिय, पाश्चात्या, प्राच्या, वाहलीका, रनतिका, दाक्षिणात्या, पैशाची, आवन्ती और शौरसेनी का नाम गिनाया है। प्राकृत चन्द्रिका ने महाराष्ट्री, आवन्ती, शौरसेनी, अर्धमागधी, वाहलीकी, मागधी, दाक्षिणात्या और अपभ्रंश का ही वर्णन केवल नहीं किया है अपितु 27 प्रकार के अपभ्रंशों का भी चित्रण किया है, जैसे-वाचड, लाट, वैदर्भ, उपनागर, नागर, वारवर, आवन्त्य, पाञ्चाल, टक्क, मालव, कैकय, गौड, औड्र, द्वे, पाश्चात्य, पाण्ड्य, कुन्तल, सिंहल, कलिंग, प्राच्य, करणाटक, काञ्च, द्राविड, गुर्जर, आभीर, मध्यदेशीय और वैडाल। यह ध्यान देने की बात है कि क्षेत्रीय या ट्राइव लोगों का विभाजन सन्तोषप्रद नहीं है। वररुचि के परवर्ती वैयाकरणों ने प्राकत पर बढ़ती हई क्षेत्रीय बोलियों का प्रभाव देखा था। उन लोगों ने यह भी देखा था कि प्राकृत शब्दों के उच्चारण पर भी क्षेत्रीय बोलियों का प्रभाव पड़ रहा है। जैसा कि हम जानते हैं इन वैयाकरणों के समय प्राकृत भाषा मृत हो चुकी थी और इसमें किसी भी प्रकार के आश्चर्य की बात नहीं है कि लेखक-गण एक-दूसरे की रचनाओं पर ही निर्भर करते थे। इसी कारण वे लोग वास्तविक रूप से भाषाओं का सूक्ष्म रूप बताने में असमर्थ हो जाते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ परवर्ती लेखकों ने वस्तुतः न० भा० आ० भाषाओं के पूर्ववर्ती रूप के क्रमिक विकासों को ही दिखाया शिलाल शिलालेखों और आधुनिक बोलियों के अध्ययन करने से पता चलता है कि वैयाकरणों ने जो विभाजन किया है वह वस्तुतः वैज्ञानिक आधार पर नहीं है। यह ध्यान देने की बात है कि शिलालेखों और बोलियों से महाराष्ट्री, मागधी और शौरसेनी की विशेषता का पता चलता है। व्याकरणिक पद्धति की दो प्रवृत्तियाँ दिखाई देती हैं। य श्रुति का प्रयोग हम सर्वत्र पाते हैं। यह कहा जाता है कि व्यंजन य का विस्तार किया जाता है तब महाराष्ट्री में अ-ध्वनि सुरक्षित रहती है किन्तु अर्धमागधी में य पाया जाता है। यह नियम आधुनिक मराठी में है ही नहीं। परन्तु महाराष्ट्र के शिलालेखों में
SR No.023030
Book TitleHemchandra Ke Apbhramsa Sutro Ki Prushthabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamanath Pandey
PublisherParammitra Prakashan
Publication Year1999
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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