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________________ उपसंहार 441 इस प्रकार अपभ्रंश भाषा न० भा० आ० और पुरानी भारतीय आर्य भाषा की कड़ी जोड़ने वाली है । यह पुरानी योगात्मकता से पिंड छुड़ाकर अयोगात्मकता की ओर बढ़ती है। इसकी भाषायिक विकास प्रक्रिया अत्यधिक हिन्दी से मेल खाती है। यह पुरानी हिन्दी सी जान पड़ती है। अपभ्रंश भाषा और साहित्य का अध्ययन ज्यों-ज्यों दिनों-दिन बढ़ता जायेगा त्यों-त्यों मध्यकाल की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि और भी स्पष्ट होती जायेगी। इससे हिन्दी के आदि काल का स्वरूप स्पष्ट होगा और मध्य भारतीय भाषाओं की स्पष्ट रूपरेखा सामने आयेगी । प्रस्तुत पुस्तक में अब तक हमने जो विवेचन किया उसका निष्कर्ष यही है कि अपभ्रंश पुरानी भारतीय भाषाओं एवं आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं को जोड़ने वाली कड़ी है। अपभ्रंश से दोनों भाषाओं के अध्ययन में सहायता मिलती है। यह 5, 6 सौ वर्षो तक जीवित भाषा के रूप में भारतीय जनता को अनुप्राणित करती रही । अपभ्रंश और अवहट्ठ दोनों एक ही हैं। अपभ्रंश में भाषा के पुराने बन्धन शिथिल हो जाते हैं। सरलीकरण की प्रवृत्ति परिलक्षित होती है । वाक्य-रचना का ढाँचा बदल जाता है, वाक्य बड़े न होकर छोटे होते हैं। मिश्रित पदावलियाँ कम दीखती हैं। भूत काल में कर्मणि एवं भावे प्रयोग अधिक होते हैं । विभक्तियों का अभाव भाषा की अयोगात्मकता बताता है। इसका स्पष्ट प्रभाव हिन्दी पर दीखता है। अपभ्रंश में विभक्तियों का स्थान परसर्ग ले लेते हैं । कारक चिह्न सिमट कर तीन वर्गों में बँट जाते हैं- प्रथमा और द्वितीया, तृतीया और सप्तमी तथा पंचमी और षष्ठी । सम्प्रदान का अपना कोई पृथक चिह्न नहीं है। अपभ्रंश के रचनात्मक प्रत्यय अपने हैं । उनका प्रचलन हिन्दी में भी है जैसे स्वार्थिक डा या ड़ा तथा रा प्रत्यय आदि - दोषड़ा, संदेसड़ा हियरा, जियरा आदि । अपभ्रंश के सर्वनाम पुरानी भाषाओं के आधुनिक भारतीय भाषाओं के रूप 1
SR No.023030
Book TitleHemchandra Ke Apbhramsa Sutro Ki Prushthabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamanath Pandey
PublisherParammitra Prakashan
Publication Year1999
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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