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________________ चतुर्दश अध्याय उपसंहार भारतीय आर्य भाषाओं का वाङ्मय बड़ा विशाल है। नव्य भारतीय आर्य भाषाएँ पुरानी भाषाओं के ही विकसित एवं परिवर्धित रूप हैं। परिष्कार और विकास पाने में कई सीढ़ियाँ पार करनी पड़ी हैं। वैदिक और लौकिक संस्कृत के बाद पालि और प्राकृत का काल आता है। प्राकृत की बहुत सी बोलियाँ रहीं होंगी। प्राकृत वैयाकरणों के अनुसार प्रधान 4 या 6 ही प्राकृत भाषाएं हैं। वररूचि के अनुसार महाराष्ट्री, शौरसेनी, मागधी और पैशाची ये चार प्राकृत हैं। हेमचन्द्र और अन्य प्राकृत वैयाकरणों के अनुसार इन चारों के अतिरिक्त अर्धमागधी और अपभ्रंश भी हैं। अशोक के शिलालेखों, बौद्ध जातकों एवं पिटकों में पालिभाषा का विशाल रूप जिस तरह दृष्टिगत होता है ठीक उसी तरह से प्राकृत साहित्य एवं संस्कृत नाटकों में वर्णित प्राकृत से विदित होता है कि प्राकृत भाषा कई प्रान्तीय भाषाओं में विभक्त होती हुई भी मूलतः परिनिष्ठित प्राकृत एक ही थी। काल की गति से जब प्राकृत भी संस्कृत की तरह परिनिष्ठित हो गयी, सुसंस्कृतों की भाषा हो गयी तब उसकी बोली ने अपभ्रंश भाषा का रूप धारण किया। अपभ्रंश भाषा आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं का उद्गम स्रोत है। अपभ्रंश भाषा लगभग 5, 6 सौ वर्षों तक जनता की भाषा रही। सन् 500 ई० से लेकर 1000 ई० तक अविकल रूप से यह जनभाषा रही। यह काल भारत का संक्रान्ति काल है। अपभ्रंश संघर्षों में ही पनपी और बढी। इसको सांस्कृतिक महत्त्व मिला। यह मुख्यतया निम्न वर्गों
SR No.023030
Book TitleHemchandra Ke Apbhramsa Sutro Ki Prushthabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamanath Pandey
PublisherParammitra Prakashan
Publication Year1999
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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