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________________ धातु साधित संज्ञा 413 विध्यर्थ कृदन्त संस्कृत के विधि अर्थ में तव्य प्रत्यय का प्रयोग होता था। अपभ्रंश में उसी के स्थान पर इएव्वउं, एव्वउं, एवा, एव्व प्रत्यय धातुओं के साथ लगाकर रूप होते थे। हेम० 4/438-करिएव्वउं, मरिएव्वउं, सहेव्वउं, सोएवा, देखेव्व इत्यादि। हेमचन्द्र ने देवं को हेत्वर्थ कृदन्त का रूप माना है। किन्तु इसे विध्यर्थ कृदन्त के अन्तर्गत ही मानना चाहिये। असमापिका या पूर्वकालिक क्रिया प्रा० भा० आ० में इसके त्वा (=क्त्वा अनुपसर्ग क्रियाओं के साथ) तथा य (=ल्यप सोपसर्ग क्रियाओं के साथ) प्रत्यय होते थे-पठित्वा, प्रपठ्य । म० भा० आ० °त्वा का विकास °ता में हुआ-वंदित्ता (अ० मा०), चइत्ता <* त्यजित्वा < त्यक्त्वा, गन्ता < पा० गन्त्वा (पिशेल $582) के रूप पाये जाते हैं। अ० मा० आ० में कृदन्त का एक प्रत्यय और होता है-त्ताणं, यह वैदिक *त्वानं से निकला है भवित्ताणं, वसित्ताणं आदि (पिशेल 8583) त्ताणं की व्युत्पत्ति, तुआणं *< तुवाणं <* त्वानम् से दी गई है। अनुनासिक लुप्त होने पर इसका रूप तुआण हो जाता है (पिशेल $584)। घेत्तु आणं, भेतु आणं। इसी त्वानं का विकसित रूप तूणं,-ऊणं और विशेषकर तूण और ऊण है जो शौरसेनी में-दूण भी वर्तमान है पैशाची में तूण है। भोदूण, पठिदूण आदि। साथ ही साथ प्राकृत में इअ प्रत्यय भी पाये जाते हैं। (पिशेल 594) अपभ्रंश के पूर्वकालिक क्रिया में वैयाकरणों ने कई प्रत्यय माने हैं : एप्पि, एपि-एप्पिणु,-एपिणु, एविणु,-इवि, अवि,-प्पि,-पि,-वि,पिणु (पिशेल 8588) आदि का संबंध वैदिक कृदन्त के समाप्ति सूचक चिह्न-त्वी और त्वीनम् (इष्ट्वीनम् और पित्वीनम्) से जोड़ा
SR No.023030
Book TitleHemchandra Ke Apbhramsa Sutro Ki Prushthabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamanath Pandey
PublisherParammitra Prakashan
Publication Year1999
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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