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________________ धातुसाधित संज्ञा 409 अपूर्ण या वर्तमान कालिक कृदन्त प्रा० भा० आ० में वर्तमान कालिक कृदन्त परस्मैपदी अन्त (शतृ) तथा आत्मनेपदी धातुओं में मान-आन (शानच् ) है । म० भा० आ० में आत्मनेपदी धातुओं का प्रायः लोप हो जाने के कारण माण (मान) वाले रूप कम पाये जाते हैं। प्राकृत अन् (अन्त) का अन्तो रूप पाया जाता है । न्त ( = अनुस्वार+त) व्यंजनान्त धातु के बाद संयोजक 'अ' लगता है। बहुत बार स्वार्थिक अ का विस्तृत न्तय (संकुचित न्ता) रूप होता है । स्त्रीलिंग में 'न्ती' 'न्ति' का विकसित रूप 'न्तिअ ́ भी पाया जाता है । छन्द वश कहीं अनुस्वार का अनुनासिक भी होता है । न० भा० आ० के कृदन्तों में अनुनासिकत्व समाप्त हो गया है ( करत्, करतो, करता, करती) - उदाहरणः-जइ पवसन्ते न गय, गणन्तिए, जोअन्त, जोअन्ती ( हेम० 4 / 409), जोअन्ताहं, जुज्झंत, दारंत, निवसंत, पवसंत, मेल्लंत, लहंत, वलंत, अंत देंत, छोल्लिज्जंत, दंसिज्जंत, फुक्किज्जंत । कभी कभी त के बाद य भी लग जाता है- नासंतय, रडंतय, जंतय, तय, कभी - कभी ता भी जुट जाया करता है - चिंतता, नवंता आदि । कहीं-कहीं 'न्त' की जगह 'त' भी मिलता है - होसइ करतु म अच्छ । स्त्रीलिंगः - गणन्ति दिंति, मेल्लंति, जेअंति, उड्डावन्तिअ, लहंन्तिअ । अपावन्ती < अप्राप्नुवन्ती, हुवन्ती, पेक्खन्ती आदि । प्राकृत में 'माण (पु०), 'माणा-माणी (स्त्री०) वाले रूप भी मिलते हैं। पिशेल ($561,62) ने अपने प्राकृत व्याकरण में माण और माणी प्रत्यय का उदाहरण अर्धमागधी और जैन महाराष्ट्री का ही दिया है। इसका अधिक उदाहरण न मिलने का एक कारण तो यह है कि प्राकृत में आत्मनेपद का अभाव है। दूसरा यह कि ये किन्हीं विभाषाओं में ही पाये जाते थे जो कि जैन प्राकृतों के आर्ष प्रयोगों का संकेत करते हैं। पासमाणे, पासइ, सुणमाणे,
SR No.023030
Book TitleHemchandra Ke Apbhramsa Sutro Ki Prushthabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamanath Pandey
PublisherParammitra Prakashan
Publication Year1999
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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