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________________ 408 हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि है तुम्हेहि अम्हेहि जं कियउँ दिट्ठउ बहुअ जणेण यहाँ कियउं, दिट्ठउँ में नपुंसक लिंग का अनुस्वार सुरक्षित है। कहीं-कहीं अकर्मक धातुओं में या अन्यत्र भी अ के पूर्व इ स्वर दीख पड़ता है=जइ ससणेही तो मुइअ, विहंवि पयारेहिं गइअ धण (हेम०)। संस्कृत में जिन सेट् धातुओं से आर्धधातुक में इडागम होता था उन धातुओं से अपभ्रंश के तद्भव निष्ठा में भी 'श्रुति गोचर' होता है। संस्कृत अनिट् धातुओं के अपभ्रंश अनिट् तद्भव धातुओं के रूपों में भी 'इ' दीख पड़ता है। संस्कृत सेट् धातु का अपभ्रंश तद्भव सेट् धातुओं में उकार भी श्रुतिगत होता है-पडिउ, उव्वरिउ इत्यादि । निष्कर्ष यह कि निष्ठा 'क्त' का विकसित रूप अपभ्रंश में अ, य एवं उ रूप में पाया जाता है। इन्हीं निष्ठा प्रत्ययों से भूतकालिक क्रिया रूप बनाया जाता है। यह निष्ठा विशेषण विशेष्य का अनुसरण करने के कारण अपना रूप संज्ञा प्रकरण की भाँति चलता था। यद्यपि अपभ्रंश में निष्ठा के प्रथमान्त रूप ही विशेषतया पाये जाते हैं; पर कहीं-कहीं तृतीया एवं सप्तमी आदि विभक्तियों के रूप भी पाये जाते हैं:-पुत्ते जाएँ कवण गुणु', सायरि भरिअइ विमल जलि°। यहाँ पर जाएँ तृतीया का, भरिअइ सप्तमी का रूप ___ भाव कर्म में 'क्त' प्रत्यय रहने पर अ को इ' होता है हसिअं, हासिअं, पढिअं, पाढ़िअं, नविअं इत्यादि। भावकर्म में विहित णिच् प्रत्यय का आविर प्रयोग, भूत कालिक निष्ठा 'क्त' के रहने पर होता है। उदाहरण कारिअं, कराविअं, हासिअं, हसाविअं इत्यादि। अपभ्रंश में निष्ठा का रूप 'दा' धातु से दिण्णी एवं दिण्णा प्रयोग भी बनता है (हेम० 4/330) कसवट्टइ दिण्णी। जे महु दिण्णा (हेम० 4/333); परवर्ती अपभ्रंश के समय में भाव कर्म वाच्यार्थक निष्ठा 'क्त' प्रत्यय का प्रयोग कर्तृवाच्य में भी होने लगा था, जैसे हंसिहि चडिउ का प्रयोग हंस चडयो' आदि।
SR No.023030
Book TitleHemchandra Ke Apbhramsa Sutro Ki Prushthabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamanath Pandey
PublisherParammitra Prakashan
Publication Year1999
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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