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________________ 382 हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि . धरहिँ < धरन्ति, करहिँ < कुर्वन्ति, सहहिँ < शोभन्ते आदि (हे० 4/365,1,367,4; और 5; 382)-कर्मवाच्य में घेप्पहिँ < गृह्यन्ते । परवर्ती प्राकृत और अपभ्रंश में इरे < प्रा० भा० आ० रे (वैदिक दुहरे शेरे) का प्रयोग होता था उदाहरण-हसेइरे, हसइरे, हसिरे आदि। हेमचन्द्र के अनुसार यह एक वचन में प्रयुक्त होता था (हेम० 3/142) सूसइरे गाम चिक्खलो < शुष्यति ग्राम चिक्खलः । यही नियम त्रिविक्रम ने 2,2,4 में बताया है-सूसइरे ताण तारिसो कण्ठो < शुष्यति तासां तादृशः कण्ठः।। इन सभी पूर्वोक्त रूपों के रहते हुए भी अपभ्रंश में हिं का ही प्रचलन अधिक है। इसी से न० भा० आ० भाषाओं में हि का विकास पाया जाता है। पुरानी राजस्थानी में हि अह प्रत्यय पाये जाते हैं, जो-ए० व० और ब० व० में समान रूप से पाये जाते हैं-जाहि, खाहि, डरपाहि (ढोला मारु रा दोहा), पुरानी अवधी में इसके सानुनासिक रूप मिलते हैं। वहाँ ए० व० तथा ब० व० के रूपों में यह भेद है कि ए० व० में अनुनासिक रूप तथा ब० व० में सानुनासिक रूप मिलते हैं: कीन्हेसि पंखि उडहि जहँ चहहि (जायसी) बसहि नगर सुन्दर नर नारी (तुलसी) ब० व० में 'हि' वाले रूपों का विकास--'इ' के रूप में भी हो गया है। जहाँ ए० व० तथा ब० व० रूपों में कोई भेद नहीं रहा है। आज्ञा प्रकार (इम्परेटिव) एवं विध्यर्थक अपभ्रंश में आज्ञा, विधि, एवं हेतु हेतुमद्भावादि अर्थों में लोट् लकार वाला रूप प्रयुक्त होता है। संस्कृत में भी प्रायः इन अर्थों में कुछ कुछ समता होते हुए भी सब के लिये पृथक् प्रत्यय लगाकर अर्थ निश्चित किये जाते थे। किन्तु प्राकृत के बाद अपभ्रंश में यह भेद मिट सा गया और केवल आज्ञा प्रकार (लोट् लकार)
SR No.023030
Book TitleHemchandra Ke Apbhramsa Sutro Ki Prushthabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamanath Pandey
PublisherParammitra Prakashan
Publication Year1999
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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