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________________ हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि है अपभ्रंश में कुछ ऐसी धातुओं के रूपों का प्रयोग हुआ जो कि संस्कृत लकारों से बने हुए रूपों के प्रयोग हैं। जैसे- पेक्खइ < सं० प्रेक्ष्यति, देक्खइ < सं० द्रक्ष्यति । 364 उपर्युक्त धातु रूप कर्तृवाच्य के हैं। कर्तृवाच्य के धातु रूपों का परिवर्तन भी पाया जाता है। कर्मवाच्य का रूप संस्कृत में विकरण 'यक्' लगाकर आत्मनेपदी तिङ् का प्रत्यय होता था । अपभ्रंश में इसका भी विकसित रूप धातुओं में ग्रहीत हुआ उपपज्जइ < उत्पद + यक्= उत्पद्यते, धिप्पइ < घिप + य = घिप्यते, छिज्जइ < क्षिप् + य=क्षिप्यते, बुज्झइ < बुध् + य = बुध्यते इत्यादि । कृदन्तज रूपों से बने हुए धातुओं का भी ग्रहण हुआ - इट्ठइ < प्र+विश+क्त=प्रविष्ट, लग्गइ < लग्न = लग+क्त, सँदइ < सम्+स्त्र+क्त=संस्त्रत । डॉ० ग्रियर्सन" के अनुसार प्राकृत तथा अपभ्रंश में भी बहुत सी धातुयें ध्वनि के अनुकरण पर बनीं, जैसे- गुलगुलइ (हाथी के समान), सलसलइ (पौधा या जानवरों के आधार पर धीमी अवाज), किलकिलइ (पूर्ण प्रसन्नता के अनुसरण में) । संस्कृत में अकारान्त धातुओं से प्रेरणार्थक क्रियायें 'पुक' प का आगम करके क्रिया बनायी जाती थी जैसे- दापयति, दापितः, स्थापयति, स्थापितः, प्रापयति, प्रापितः इत्यादि । इसी 'पय' या 'आयं’ से पालि एवं प्राकृत के विकास के बाद अपभ्रंश में अव लगा कर धातुओं का प्रयोग किया गया, जैसे- दावइ (दा), थावइ (था स्था), विण्णवइ (वि+ज्ञा), चिन्तवइं (चिन्त), बोल्लावइ (बोल्लइ बोलना ); तोसावइ (तुष); पूर्वी अपभ्रंश में व की जगह ब होता है. परिभाबइ (परि+भू); दहाबिय (दह), = = डॉ० तगारे" का कहना है कि कभी-कभी धातुओं के मूल स्वर में वृद्धि भी हो जाती थी (मुख्यतया अ और इ, उ का गुण )
SR No.023030
Book TitleHemchandra Ke Apbhramsa Sutro Ki Prushthabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamanath Pandey
PublisherParammitra Prakashan
Publication Year1999
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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