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________________ 340 हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि त्रि का अप० में ति, तइ, ते आदि। तिविह, (त्रिविध), तिग (त्रिक), पूर्वी अपभ्रंश में तेलोअ, पश्चिमी अप० तैलोय (तैलोक्य), तैय (त्रिक)। (4) कर्ता पुल्लिंग-चत्तारो < चत्वारः, चउरो < चतुरः, चउ, (चउकलउ, चउक्कल), चो (चोअग्गला), चारि, (< चतु-चत्वारि < चतुर)। चउ < चतुर, चयारि (*चतारि < चत्तारि < सं० चत्वारि)। न० भा० आ० में इसका उच्चारण (महा०; हि०, गुज०, पंजा०, नेपा०) चार है। अपभ्रंश में संयुक्त रूप चउ है। पूर्वी अपभ्रंश चउत्थ (चतुष्तय), पश्चिमी अपभ्रंश-चउव्विह, चउविह (चतुर्विध), चउरासि (चतुरसीति), आचाउद्दिसि (चतुर्दिक्षु), चउद्दिसं < चतुर्दिशम्, चउम्मुह < चतुर्मुख, चउद्दस < चतुर्दशन् पद्य में चउदस तथा संक्षिप्त रूप चौदस भी चलता है। महा० में चो दह रूप है, चोदसी भी मिलता है। चोग्गुण और उसके साथ-साथ चउग्गुण < चतुर्गुण है। अपभ्रंश के नपुंसक लिंग में चारि है-(पिंगल 1,68,87,102) जो (पिशेल $439 के अनुसार) चत्वारि, * चात्वारि, * चातारि, * चाआरि रूप ग्रहण कर चारि बना है। (5) पंच (< पंच), पा०, प्रा०-पंच, मरा०, हि०, गुज०, बंगा०, नेपा०, पाच, पंजाबी-पंज, सिन्धo-पंजा। तृतीया और अधि० में हि और चतु०, षष्ठी, पंचमी में हा और ह होता है। संयुक्त में पंच अपरिवर्तित रहता है या यह पण्ण या पण में परिवर्तित हो जाता है। इस प्रकार पश्चिमी अपभ्रंश में पंच गुरु (गुरून), पणुबीस, पंचुत्तर वीस (पंचोत्तर विंशति) पश्चिमी अपभ्रंश में पण्णरह (पंचदश), हि०-पन्द्रह, म०-पंध्रा, सिन्धी-पंद्रहा आदि। - (6) छअ, छआ, छउ, छह, छक्का , खडा, 'छ' समास में (छक्कलु, छक्कलो) (< षष् (षट्)। इसका विकृत रूप समस्त न० भा० आ० में पाया जाता है-गुज०, हि० छ, छह, मरा०-सहा, सिन्धी-स, सय, बंगo-छय । प्रा० भा० आ० के माध्यम से प्राकृत के बाद अपभ्रंश में छ का प्रयोग हुआ है। अप० में छह < * षष् जो छहवीस में दिखाई देता है और इसी का गौल्दश्मित्त के अनुसार छव्वीस हैं। पिशेल के अनुसार संस्कृत षोडश से पूरा मिलता जुलता प्राकृत रूप सोळस है और अपभ्रंश में सोळह है।
SR No.023030
Book TitleHemchandra Ke Apbhramsa Sutro Ki Prushthabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamanath Pandey
PublisherParammitra Prakashan
Publication Year1999
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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