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________________ रूप विचार 311 अधिकरण ए० व० में अशो० एतम्हि < एतस्मिन् पा० एतसि < एतस्मिन् या * एतसि, अप० इहि, एहिं > इहि-हि प्रा० भा० आ० स्मिन् ब० व० में जै० महा० एएसु, एएसुं, शौर० एदेसुं और एदेसु < एतेषु भी होता है। परिनिष्ठित अपभ्रंश का एह वाला रूप आगे चलकर अवहट्ठ अवधी, व्रज और खड़ी बोली में प्रचलित हुआ। उक्ति व्यक्ति प्रकरण में एह का बहुवचन रूप एन्ह मिलता है-'एन्ह मांझ' (उक्ति०)। एन्ह का परिवर्तित रूप इन्ह, इन्हें इन आदि आधुनिक हिन्दी में मिलता है। कीर्तिलता में ए (ये) के स्थान पर ई मिलता है जो कि पूर्वी प्रदेशों की विशेषता है :-'ईणिच्चइ नाअर मन मोहइ' (पृ० 4) इसके अतिरिक्त उसमें एहु, एही और एहि रूप भी मिलता है : राय चरित रसाल एहु (पृ० 8) , एहि दिण्ण उद्धार के (पृ० 18) जनि अद्य पर्यन्त विश्वकर्मा एही कार्य छल (पृ. 50) अवधी और व्रज में भी इसके कुछ उदाहरण मिलते हैं। एहि महँ रघुपति नाम उदारा (मानस) मैं जो कहा यह कपि नहिं होई (मानस) ये बतियाँ सुनि रूखी (सूर०) आधुनिक हिन्दी में भी यह, ये इत्यादि रूप पाये जाते हैं। आय, आअ, अ = इदम् शब्द का रूप प्राकृत में इस शब्द के निम्नलिखित रूप पाये जाते हैं। एकवचन कर्ता :- पुल्लिंग - अयं (अ० मा०, जै० महा०), अअं (सा० धम्म०) इमो (म०) इमे (अ०मा०)
SR No.023030
Book TitleHemchandra Ke Apbhramsa Sutro Ki Prushthabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamanath Pandey
PublisherParammitra Prakashan
Publication Year1999
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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