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________________ 298 हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि कूदि पड़ा तब सिन्धु मैंझारी (मानस) सरग आई धरती महँ छावा (पद्मा०) राम प्रताप प्रकट एहि माँही (मानस) ज्यों जल माँह तेल की गागरि (सूर०) झिलमिल पट मैं झिलमिली (बिहारी) हमको सपनेहू में सोच (सूर०) उप्परि, परि आदि का प्रयोग भी अधिकरण परसर्ग के अर्थ में होता है। सायरु उप्परि तणु धरइ (हे० 8/4/334) संस्कृत उपरि का ही रूप उप्परि है। हेमचन्द्र के अपभ्रंश दोहे में एक जगह रहवरि चडिअउ मिलता है जो कि संभवतः उपरि से परि और परि से वरि रूप में आया। पउम चरिउ में-उवरि (उपरि) 238, 662 आदि। उवरिम 178 10, उप्परि आदि। प्राकृत पैंगलम् में उवरि और उप्पर तथा उप्परि रूप पाया जाता है-सअल उवरि (1,87) वाह उप्पर पक्खरदइ .. (1,106) व्रज और खड़ी बोली में पररूप पाया जाता है। आपुनि पौढ़ि अधर से ज्या पर (सूर०) हम पै कोप कुपावति (सूर०) (7) केहिँ परसर्ग का प्रयोग सम्प्रदान के लिये होता है। हउँ झिज्जउँ तउ केहि (हेमचन्द्र) तउ केहिं अन्नहि रेसि (हे० 4/8/425) इसकी व्युत्पत्ति संस्कृत कृते प्राकृत कए, कएहिँ से माननी चाहिये। उक्ति व्यक्ति प्रकरण में केहँ और किहँ रूप पाया जाता है। पर केहँ, आपणु केहँ, पढ़बे किहँ आदि । अवधी में इसी का रूपान्तर कहुँ अथवा कहँ रूप हैतिन्ह कहँ सुखद हास रस एहू (मानस) पहुँचिन सके सरग कहँ गये (पद्मा०) व्रज में इसी का परिवर्तित रूप संभवतः काँ, कौं, कू और को मिलता है।
SR No.023030
Book TitleHemchandra Ke Apbhramsa Sutro Ki Prushthabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamanath Pandey
PublisherParammitra Prakashan
Publication Year1999
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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