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________________ 276 हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि उपर्युक्त सारी विभक्तियाँ संस्कृत एवं प्राकृत की भाँति प्रकृति से मिलकर कारक के अर्थों को व्यक्त करने के लिये शब्द रूपों में व्यक्त होती हैं : (क) कर्ता प्रथमा एक वचन में पुत्त+सि विभक्ति के स्थान पर उ। आदेश पुत्तु रूप बनता है। ओ2 का रूप पुत्तो, तथा पुत्त एवं पुत्ता रूप भी होगा। बहुवचन में प्राकृत की भाँति पुत्त, पुत्ता, रूप होगा। (ख) कर्म० द्वितीया एक वचन पुत्त+अम् के स्थान पर उ आदेश होकर पुत्तु रूप बनता है। भाषा के सरलीकरण की प्रवृत्ति के कारण प्रथमा एक वचन की तरह पुत्त तथा पुत्ता रूप भी मिलता है। बहुवचन में भी सरलीकरण की प्रवृत्ति के कारण शस् का लोप होकर पुत्त और पुत्ता रूप बनता है। (ग) करण० तृतीया एक वचन पुत्त+टा के स्थान पर एकार होकर पुत्ते।4 रूप बनता है। इसके एं तथा एण का रूप पुत्तें तथा पुत्तेण5 भी मिलता है। यहाँ पर संस्कृत के अनन्तर प्राकृत में एण के ण उच्चारण के स्थान पर अनुस्वारात्मक प्रवृत्ति के आ जाने के कारण एण का एं हो सकता है। डॉ० तगारे के अनुसार यह रूप उत्तर पूर्वी भारतीय है। उत्तर पश्चिम भारत में ण का उच्चारण अभी भी सुरक्षित है। पुत्ते में संस्कृत एण का ण अक्षर न या अनुस्वार होकर बाद में विनष्ट हो गया। यह प्रवृत्ति मुखोच्चारण सरलता की ही है। इस रूप की सरलता की प्रवृत्ति क्रमशः इस प्रकार रही होगी-पुत्तेण > पुत्ते > पुत्ते। ये तीनों रूप अपभ्रंश में पाये जाते हैं। बहुवचन में पुत्त + भिस् को हिं होकर अ को ए करके पुत्तेहिं। तथा पुत्तहिं रूप बनता है। संस्कृत में अजन्त शब्दों के बाद भिस् को ऐ: हो जाता है, किन्तु इकारान्त, उकारान्त शब्दों के परे भिस् को भिः रूप होता है। प्राकृत में उसी भिस् का एहि, एहिं तथा एहिँ रूप बना; अपभ्रंश में उसी प्राकृत एहिं का विकसित रूप एहिं तथा हिं एवं हि प्रयोग मिलता है। वस्तुतः हि एवं एहिं के रूप में आने का मूल बीज
SR No.023030
Book TitleHemchandra Ke Apbhramsa Sutro Ki Prushthabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamanath Pandey
PublisherParammitra Prakashan
Publication Year1999
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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