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________________ रूप विचार < निशा, < कहि < कथा । ह्रस्वीकरण प्रवृत्ति के अपवाद भी मिलते हैं यथा - एह कुमारी, एहो नरु० (हेम० 8 /4/362) ढोल्ला मइँ तुहुं वारिया०, विट्टीए० ( हेम० 8 / 4/329)। अ, इ, उकारान्त प्रातिपदिकों में भी अकारान्त प्रातिपदिकों की ही प्रधानता रही और इ, उकारान्त प्रातिपदिकों के कारक रूप बनाने के लिये इनके साथ अकारान्त प्रातिपदिकों की विभक्तियों का व्यवहार किया जाने लगा । यथा - तृतीया एक वचन में देवें < देवेन, अग्गिएँ < अग्निना, महुए < मधुना इत्यादि । संस्कृत की विभक्तियों का पालि के बाद प्राकृत में ह्रास होने लगा । पालि में ही चतुर्थी और षष्ठी का भेद मिट गया था, अपभ्रंश में तो विभक्तियों का बहुत ही अधिक ह्रास हो गया था। प्राकृत में तो चतुर्थी और षष्ठी का भेद भाव दिखाई देता है (वररुचि- प्राकृत प्रकाश 6/64/, चंड 2/13) यह भेद अपभ्रंश में भी कभी-कभी दिखाई देता है । " किन्तु द्वितीया और चतुर्थी एक सा दिखाई देता है। सप्तमी और तृतीया का एक वचन और बहुवचन में कई बार समता सी दिखाई देती है । प्रथमा और द्वितीया का भेद भाव मिट गया। पंचमी और षष्ठी के एक वचन में एकरूपता हो चली । इस प्रकार अपभ्रंश अजन्त पुल्लिंग में निम्नलिखित विभक्तियाँ पायी जाती हैं । कारक कर्ता कर्म करण सम्प्रदान अपादान सम्बन्ध अधिकरण सम्बोधन एकवचन (सि)०, आ, उ, ओ (अम्)०, आ, उ, (टा) ए. एं, एण 275 O (ङसि ) हे, हू (ङस्) सु, हो, स्सु (ङि) ए, इ (अ)०, आ, उ, ओ बहुवचन (जस्)०, आ (शस्) ०, आ (मिस्) हि, एहिं O (भ्यस) हुं (आम्) हं,० (सुप्) हिं ०, आ, हो
SR No.023030
Book TitleHemchandra Ke Apbhramsa Sutro Ki Prushthabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamanath Pandey
PublisherParammitra Prakashan
Publication Year1999
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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