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________________ व्याकरण प्रस्तुत करने की विधि अपभ्रंश में भूतकालीन रूप कृदन्तज होते थे । भूतकाल की क्रिया अस् या √भू लगाकर व्यक्त किया जाता था; परवर्ती अपभ्रंश में ल लगाकर व्यक्त किया जाता था । 225 अपभ्रंश में विधि का प्रयोग प्रा० भा० आ० का प्रकार (Mood, में प्रयोग होता था और कभी विधि में प्रयुक्त होता था । इसका रूप-इज्ज < प्रारम्भिक प्राकृत एय्य है और कर्म० इज्ज के रूप में सन्देह हो जाता है । यह कभी - इअव्व (< तव्य) के रूप से भी मिलता है। परवर्ती पश्चिमी अपभ्रंश में इज्ज का प्रयोग नहीं पाया जाता, सभी पुरुषों में प्रयुक्त होता था । वर्तमान, भूत कर्मवाच्य और भविष्यत्काल, पूर्वकालिक क्रिया आदि अपभ्रंश में प्रधान हैं । अपभ्रंश में अन्त और माण प्रत्यय प्रा० भा० आ० की तरह धातुओं में जुटते हैं । प्राकृत की तरह अपभ्रंश में प्रा० भा० आ० का इ-त का प्रयोग बिना क के भी होता था । यह पुरानी धातुओं या देशी धातुओं में भी लगता था । प्रा० भा० आ० की अनिट धातुओं की तरह या देशी धातुओं के साथ मिला दिया जाता था । देशी धातुओं में (इ) अ < इत-उय, इय या इअ लगता था । वर्तमान कृदन्त में तीन काल होते हैं। इसमें कई प्रत्यय लगते हैं-प्पण, - इप्पि (णु), – इवि (णु), भविष्यत्कृदन्त के प्रत्यय हैं - एव्वउ, एवा । कुछ मुख्य क्रिया रूप भी हैं - बोल्ल - वद के लिये, मुक के लिए मेल्ल, मुक्क, मुअ; स्थापय के लिए थव; वेस्तय के लिए वेल्ल, वेद्ध; मस्ज के लिए बुड्ड, खुप्प आदि होता -- है प्राचीन वैयाकरणों द्वारा कथित भाषा और उसकी प्रमुख बोलियाँ पुरूषोत्तम ने अपने प्राकृत व्याकरण में प्राच्या को प्राकृत में तीसरा स्थान दिया है। उसका कहना है कि प्राच्या का शौरसेनी से घनिष्ठ सम्बन्ध है। आवन्ती का महाराष्ट्री और शौरसेनी से समान रूप में सम्बन्ध है ( महाराष्ट्री शौरसेनयोरेकयम्) । शाकारी मागधी की
SR No.023030
Book TitleHemchandra Ke Apbhramsa Sutro Ki Prushthabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamanath Pandey
PublisherParammitra Prakashan
Publication Year1999
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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