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________________ 220 हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि ० ० ० ० ० ० पुल्लिंग और नपुंसक लिंग के रूपो में अकारान्त शब्द रूप प्रमुख हैं और ये सामान्यतया प्रचलित थे। दूसरे संज्ञा और सर्वनामों के रूप सामान्य कर दिये गये। संज्ञा शब्दों के अन्त में हस्व का दीर्घ और दीर्घ स्वर का हस्व होता है-सामक्त–सामक्ता, खड्गाः खग्ग, दृष्टि दिट्टि, पुत्री-पुत्ति। इस तरह अपभ्रंश के निम्मलिखित कारक रूप हैं : एक० कर्ता०-उ, हो कर्म०-उ, हो तृ०-एं चतु०-सु, हो, स्सु पंच०-हे, हु ष०-सु, हो, स्सु सप्त०-इ, हि सम्बो०-कर्ता की तरह। (1) इन रूपों के पहले अन्तिम स्वर (अ, इ या उ) विकल्प करके हस्व हो जाते हैं-या दीर्घ होते हैं। (2) तृ०, ए०, व० के पहले यह ए में बदल जाता है। (3) जहाँ पर कोई विधान नहीं होता वहाँ पर पहला (1 का) नियम लागू होता है। (4) बहुत से तद्धित प्रत्यय जैसे दा, दी, उल्ल, उल्ली, अ (=क) आदि संज्ञा और विशेषण शब्द रूपों के पहले लगते हैं। (5) कर्ता कारक ए० व० पुल्लिंग के अन्त का अ:-अ या-उ का सामान्यतः ओ (-इ) होता है। नपुं० लिंग के अन्त में-उ या अ-साधारणतः-अम् होता है। तृ० ए० व०, पु० नपुं० के पदान्त में-एण (म्), इण (म्)-एम् या म् होता है। इस प्रकार तेण (म्), तिण. (म्), तें महुयें, महुं । पंचमी के अन्त में-हे और हुं । यह दो कारकों में ०
SR No.023030
Book TitleHemchandra Ke Apbhramsa Sutro Ki Prushthabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamanath Pandey
PublisherParammitra Prakashan
Publication Year1999
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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