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________________ प्राकृत वैयाकरण और अपभ्रंश व्याकरण 211 (प्रयोग) सिद्धि के अतिरिक्त कोई उदाहरण नहीं दिया है। अतः अपभ्रंश के लिये यह रचना कोई विशेष उपयोगी नहीं कही जा सकती। मतलब यह कि लक्ष्मीधर की रचना त्रिविक्रम की व्याख्या मात्र कही जा सकती है। लक्ष्मीधर ने स्वतः त्रिविक्रम का आदर के साथ प्रमाण दिया है और कहा है कि वे लोग जो त्रिविक्रम की कठिन वृत्ति की व्याख्या चाहते हैं, षड्भाषा चन्द्रिका का अध्ययन करें वृत्तिं त्रैविक्रमी गूढां व्याचिख्या सन्ति ये बुधाः । षड्भाषा चन्द्रिका तैस्तद् व्याख्या रूपा विलोक्यताम्।। सिंहराज सिंहराज का प्राकृत रूपावतार वाल्मीकि सूत्र की टीका कही जाती है जैसा कि लक्ष्मीधर ने भी यही कहा है। 1085 सूत्रों में से उसने 575 सूत्रों पर टीका की है। इन्होंने हेमचन्द्र, त्रिविक्रम एवं लक्ष्मीधर के उदाहरणों का ही पिष्टपेषण किया है। इनमें कोई विशेष वैशिष्ट्य नहीं है। अतः इनकी रचना अपभ्रंश के लिये कोई विशेष उपयोगी नहीं कही जा सकती। इन्होंने स्वतः भूमिका भाग में कहा है-तत्रादौ शास्त्रीय संव्याहार परिज्ञानार्थं संज्ञे परिभाषे वयेते। अतः इनकी रचना में सूत्रों के नाम तथा पारिभाषिक शब्दावली की व्याख्या ही विशेषतया कही गयी है। मार्कण्डेय ___ मार्कण्डेय का प्राकृत सर्वस्व अपभ्रंश की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण रचना है। मार्कण्डेय स्वतन्त्र विचार का वैयाकरण है। ये न तो पश्चिम भारत के वैयाकरणों का ही अनुकरण करते हैं और न तो जैनियों का ही। इन्होंने प्राकृत के साथ देशी भाषा का भी वर्णन किया है। तीन प्रकार की अपभ्रंशों का व्यवहार बताकर उसकी स्वतन्त्र व्याख्या दी है। प्राकृत का भाषा, विभाषा, अपभ्रंश एवं पैशाची में भेद करते हुए मार्कण्डेय ने कहा है :
SR No.023030
Book TitleHemchandra Ke Apbhramsa Sutro Ki Prushthabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamanath Pandey
PublisherParammitra Prakashan
Publication Year1999
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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