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________________ हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि मुंज की मृत्यु के बाद बनाये गये थे। 4/357 का 2, 3 दोहा और 4/420 का 5 वां दोहा हेमचन्द्र के सैंकड़ों वर्ष पुराने सरस्वती कण्ठाभरण में पाया जाता है। डा० हीरालाल जैन ने कुछ दोहों को पाहुड़ दोहा ( पृ० 22) से लिया हुआ सिद्ध किया है। इन सभी कारणों से पता चलता है कि हेमचन्द्र ने अपभ्रंश साहित्य से उदाहरणों को संकलित किया था जो कि 9वीं या 10वीं शताब्दी में बने थे । 208 हेमचन्द्र की अपभ्रंश रचना को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है। कि उनकी रचना चण्ड के प्राकृत लक्षणम् के अनुकूल नहीं है। कारण कि हेमचन्द्र ने अपभ्रंश के प्रथम सूत्र में स्वर का विधान किया है तब व्यंजन का, तदनन्तर विभक्ति आदि का विधान किया है। अपभ्रंश रचना की यह शैली परवर्ती लेखकों के लिये आदर्श का प्रतिमान बन गयी । त्रिविक्रम, लक्ष्मीधर और सिंहराज त्रिविक्रम, लक्ष्मीधर और सिंहराज इन तीनों लेखकों ने वाल्मीकि के मौलिक सूत्रों पर टीका की है। लक्ष्मीधर ने स्वतः इस बात का संकेत षड्भाषा चन्द्रिका में किया भी है। किन्तु त्रिविक्रम ने सूत्रों को निजी रचना बतायी है : प्राकृत पदार्थ सार्थ प्राप्त्यै निज सूत्र मार्गमनुजिगमिषताम् । वृत्तिर्यथार्थ सिद्धयै त्रिविक्रमेणागम क्रमात् क्रियते ।। यहाँ पर प्रो० पिशेल ने 'निज' पद की व्याख्या दो रूपों में की है। मूलतः उसने इसे 'अपने' अर्थ में लिया है और इसे 'अनुजिगमिषताम्' से मिलाया है । फिर इसे त्रिविक्रम के साथ जोड़ा है । ईहाल्व का कहना है कि 'निज' शब्द का सम्बन्ध 'स्व' पद से है । ऐसा मान लेने पर त्रिविक्रम सूत्र के रचयिता भी माने जायेंगे । किन्तु प्रो० रंगाचार्य का मद्रास केटलाग ( पृ० 1083 नं० 1548 ) से पता लगता है कि सूत्र की व्याख्या त्रिविक्रम ने की थी और सिंहराज ने
SR No.023030
Book TitleHemchandra Ke Apbhramsa Sutro Ki Prushthabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamanath Pandey
PublisherParammitra Prakashan
Publication Year1999
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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