SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 207
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अपभ्रंश और देशी 177 कुछ तो संस्कृत के वंशज हैं और कुछ शब्द स्पष्टतः द्रविड़ भाषा के हैं। पाइयलच्छी नाममाला की भूमिका (पृ. 14)22 में डा० ब्यूलर ने देशी शब्दों के बारे में कहा है सभी या लगभग सभी देशी शब्द सस्कृत शब्दों से व्युत्पन्न हैं। कुछ शब्द संस्कृत शब्दों से बहुत अधिक संबंधित हैं। उन पर हेमचन्द्र ध्यान देने में क्यों असमर्थ रहे, इस पर आश्चर्य होता है। अगर प्राकृत 'हलुअं' शब्द संस्कृत 'लघुक' (2-122) से व्युत्पन्न माना जा सकता है तो क्यों नहीं प्राकृत 'अइराभा' को संस्कृत अचिराभा से व्युत्पन्न माना जाय । किंतु हेमचन्द्र ने हलुअं को तद्भव और अइराभा को देशी माना है। यह तो कहा.नहीं जा सकता कि हेमचंद्र परवर्ती शब्दों के (1-34) प्रति सतर्क नहीं थे। यद्यपि यहाँ यह कहा जा सकता है कि इन दोनों शब्दों का कोई नाता नहीं है। कुछ और दूसरे शब्द, जो स्पष्टतया संस्कृत से व्युत्पन्न हो सकते हैं, प्राकृत वैयाकरणों के ध्वनि विषयक नियम से सिद्ध नहीं होते। डॉ० ब्यूलर ने उसी जगह फिर कहा है: 'वैयाकरणों के व्याकरणों में ध्वन्यात्मक व्याकरणिक नियमों की भिन्नताएँ रहते हुए भी वे शब्द अत्यधिक मात्रा में पाए जाते हैं। इस प्रकार कल्ला, चूओ, दुल्लं, हेरिंवो आदि शब्दों का संस्कृत के कल्यं, चूचुक दुकूल और हैरंब से घनिष्ठ संबंध है। दूसरी ओर उसी प्रकार की देशी नाममाला है जिसमें 'गंडीवं' और 'णंदिणी' जैसे शब्दरूप हैं जिनके अर्थ थोड़े बदल जाते हैं-धनुः, धेनुः आदि । अदंसणो, थूलघोणो, धूमद्दारं, मेहच्छीरं, परिहार, इत्थिआ, मुहरो, मराई आदि का अर्थ दिए बिना ही देशी शब्दों में उल्लेख किया गया है जैसा धनपाल की पाइयलच्छी में हैं। हेमचन्द्र को अपनी रचना में शब्दों के उचित अर्थ देने में कठिनाई का सामना करना पड़ा है। फिर भी उसने दूसरों की गलतियाँ दिखाई हैं। 8-13,17 में 'साराहयं' और 'समुच्छणी' शब्दों के निर्णय में विस्तृत वादविवाद करने के अनन्तर एक निर्णय किया है। इस तरह हेमचन्द्र ने प्राकृत साहित्य के विस्तृत ज्ञान के आधार पर बहुत से शब्दों का अर्थ निश्चित किया है यद्यपि उन्हीं शब्दों का पूर्ववर्ती लेखकों ने गलत अर्थ दिया है। 1-47 में उनका कहना है कि 'अयतचिअं' शब्दरूप ही उचित है, 'अवअच्चिअं' शब्द गलत है। वे
SR No.023030
Book TitleHemchandra Ke Apbhramsa Sutro Ki Prushthabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamanath Pandey
PublisherParammitra Prakashan
Publication Year1999
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy