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________________ अपभ्रंश भाषा 143 है कि अधिकांश अपभ्रंश साहित्य जैन सिद्धांत से प्रभावित हैं। जैनियों की यह महती कृपा रही है कि उन लोगों ने अपने सम्प्रदाय के ग्रन्थों की सुरक्षा जैन भाण्डागारों में विदेशियों के आक्रमण एवं विनाश के भय से की। उन प्रकाशनों ने अपभ्रंश साहित्य पर महत्वपूर्ण प्रकाश डाला है। यह एक विचित्र बात है कि पूर्वी भारत में पैदा हुआ यह सम्प्रदाय पश्चिमोत्तर एवं पश्चिम दक्षिण भारत में सुरक्षित एवं पल्लवित हुआ । अनुसन्धान कर्ताओं के सत्प्रयास से सिद्धों की बानियाँ जो प्रकाश में आयीं उससे भी अपभ्रंश साहित्य पर बड़ा प्रकाश पड़ा। यह बड़ा भारी दुर्भाग्य रहा है कि बौद्धों के मठों की पुस्तकालयों का विदेशी आक्रामकों ने कई बार संहार किया है। अगर वे पुस्तकें भी सुरक्षित रहतीं तो अपभ्रंश साहित्य का बड़ा विस्तृत साहित्य उपलब्ध होता। इतना लिखने का एकमात्र उद्देश्य यही है कि अपभ्रंश के विकास में केवल राजपूत राजाओं का ही योगदान नहीं है अपितु इससे भी बढ़कर इसके विकास में धार्मिक सम्प्रदायों का बड़ा भारी योगदान है। यदि उस समय की सामाजिक परिस्थितियों का विश्लेषण किया जाय तो यही विदित होगा कि इन सांस्कृतिक कारणों ने अपभ्रंश को प्रचुर साहित्य दिया। ये धार्मिक कृतियां होते हुए भी साहित्यिक अपभ्रंश की ही रचनायें ठीक उसी प्रकार मानी जायेंगी जिस प्रकार भक्ति काल के तुलसी और सूर आदि की साहित्यिक रचनाएँ हैं। इन धार्मिक प्रवृत्तियों ने जनता की वाणी को इतना मुखर बनाया जिससे यह भाषा कभी आधुनिक हिन्दी खड़ी बोली की भाँति सामान्य जनता से लेकर राजदरबारों तक सुप्रतिष्ठित होती रही। 12वीं या 13वीं शताब्दी में लिखित उक्तिव्यक्तिप्रकरणम् के देखने से यह विदित होता है कि कन्नौज के आसपास की भाषा भी इस शौरसेनी अपभ्रंश के बहुत समीप थी। यद्यपि इसके प्रयोग पूर्वी प्रयोग से अधिक तालमेल खाते हैं। यह गाहड़वार के राजकुमारों को सिखाने के लिये लिखी गयी थी। परवर्ती अपभ्रंश काल में लिखित कीर्तिलता, संदेश रासक एवं प्राकृत पैंगलम् आदि की
SR No.023030
Book TitleHemchandra Ke Apbhramsa Sutro Ki Prushthabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamanath Pandey
PublisherParammitra Prakashan
Publication Year1999
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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