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________________ अपभ्रंश भाषा 141 से इसकी महिमा की सत्ता को सभी लोग स्वीकार करते रहे और यही कारण है कि देशी भाषा को सुगम्य रूप से समझते हुए, दैनन्दिन कृत्यों में उसका उपयोग और प्रयोग करते हुए भी, उसको राजाश्रय बनाते हुए भी राजपूत नृपति गण, सामन्त गण संस्कृत को राजदरबार में प्रश्रय देकर अपने को अधिक गौरवान्वित समझते थे, अपना पवित्र कर्तव्य समझते थे। कभी-कभी इस कार्य में धर्म भी सहयोग दे दिया करता था। इतना सब कुछ होते हुए भी संस्कृत बहुत पुरानी भाषा हो चुकी थी। वह केवल आदर और सत्कार के लिए ही थी। वह अब जीवन को स्पन्दित नहीं करती थी। साधारण जनता का उससे लगाव नहीं रह गया था। फलतः जनता की भावनाओं को व्यक्त करने के लिए अपभ्रंश हमारे समक्ष उपस्थित होती है। यही उस समय की देश भाषा थी। कुवलयमाला कहा में वर्णित 18 देशी भाषाओं से इसी बात की पुष्टि होती है। राजा हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद राज्यों के उत्थान पतन की जो बाढ़ आयी थी उससे भी इस भाषा के विकास में बड़ा योगदान मिला। राज्यों के उत्थान, पतन एवं विदेश से आई हुई कुछ जातियों के संगम से इस भाषा में भी कुछ विदेशी शब्द घुल मिल गये। भारतीय आर्य भाषा में आर्येतर शब्दों के मेल की प्रवृत्ति वैदिक काल से ही चलती आ रही थी। अपभ्रंश भाषा में भी यही प्रवृत्ति रही। इसी कारण कुछ लोगों को यह भ्रम हो गया था कि अपभ्रंश भाषा विदेशियों के सम्पर्क से बनी थी। शूरसेन प्रदेश का कुछ ऐसा सौभाग्य रहा है कि प्रारम्भ से ही यह संस्कृति का केन्द्र रहा। संस्कृत और प्राकृत की भी कर्मभूमि यही रही। यहीं से चतुर्दिक इन सभी का विकास तथा विस्तार हुआ। इस अपभ्रंश के विकास में अगर निष्पक्ष दृष्टि से देखा जाये तो राजपूतों के राजकोर्ट की अपेक्षा सांस्कृतिक एवं धार्मिक मतमतान्तरों ने अधिक योगदान दिया। इनके योगदान का कारण भी था। संस्कृत में अब वह जीवन्तता नहीं रह गयी थी। प्राकृत से सामान्य जनता का नाता टूट चुका था। इस युग के साधु सन्त लोग अपनी
SR No.023030
Book TitleHemchandra Ke Apbhramsa Sutro Ki Prushthabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamanath Pandey
PublisherParammitra Prakashan
Publication Year1999
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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