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________________ अपभ्रंश भाषा 137 गीत लिखे हैं वहीं दूसरी ओर शौरसेनी अपभ्रंश के परवर्ती रूप 'अवहट्ट' या अपभ्रष्ट में काव्य लिखा-कीर्तिलता | . वस्तुतः अपभ्रंश कहने से एक ही अपभ्रंश का बोध होता है। देशभेद होने पर भी एक ही अपभ्रंश मुख्य थी। जैसे शौरसेनी, पैशाची, मागधी आदि के भेद होते हुए भी प्राकृत एक ही थी, वैसे ही शौरसेनी अपभ्रंश, पैशाची अपभ्रंश, महाराष्ट्री अपभ्रंश आदि होकर भी एक ही अपभ्रंश प्रबल हुई। हेमचन्द्र आदि ने जिस अपभ्रंश का वर्णन किया है वह शौरसेनी के आधार पर है। मार्कण्डेय ने अपभ्रंश का वर्णन करते हुए 'नागर अपभ्रंश' का उल्लेख किया है। वह भी वस्तुतः शौरसेनी अपभ्रंश ही है जिसे हम पश्चिमी अपभ्रंश भी कह सकते हैं। इसी पश्चिमी अपभ्रंश का वर्णन राजशेखर ने काव्य मीमांसा में किया है। कविता के लिये यह शौरसेनी अपभ्रंश एक तरह से स्वीकृत कर ली गयी थी। पं० चन्द्रधर शर्मा गुलेरी ने पुरानी हिन्दी (पृ० 12) में लिखा है। शौरसेनी और भूतभाषा की भूमि ही अपभ्रंश की भूमि हुई और वही पुरानी हिन्दी की भूमि हुई। अन्तर्वेद, व्रज, दक्षिणी पंजाब, टक्क, भादानाक, मरु, त्रवण, राजपूताना, अवंती, पारियात्र, दशपुर और सुराष्ट्र-यहीं की भाषा एक ही मुख्य अपभ्रंश था जैसे पहले देशभेद होने पर भी एक ही प्राकृत थी। इस तरह एक ही प्रकार की साहित्यिक अपभ्रंश भाषा का व्यवहार सर्वत्र था। इसने पूर्वोक्त समस्त भागों में एक ही प्रकार की साहित्यिक भाषा का मापदण्ड रखा था, इस साहित्यिक अपभ्रंश की पृष्ठभूमि संस्कृत और प्राकृत रही है। इसी साहित्यिक अपभ्रंश भाषा को साधारणतया विद्वानों ने पश्चिमी अपभ्रंश या शौरसेनी अपभ्रंश कहकर पुकारा है। यह साहित्यिक भाषा शूरसेन या मध्य प्रदेश की प्रचलित बोली के आधार पर बनी थी। कभी इसी शूरसेन या मध्यदेश की भाषा संस्कृत थी जिसने समस्त भारत में अपना विस्तार किया। शौरसेनी प्राकृत की तूती भी एक जमाने में सारे प्राकृत साहित्य में बोलती थी। पुनः इसने एक बार साहित्यिक अपभ्रंश का गौरव प्राप्त किया। सर्वत्र इसकी सत्ता स्थापित हुई।
SR No.023030
Book TitleHemchandra Ke Apbhramsa Sutro Ki Prushthabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamanath Pandey
PublisherParammitra Prakashan
Publication Year1999
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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