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________________ 118 हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि एक विशेषता कायम थी अर्थात् ये तीनों भाषा कुल उस स्वरूप को अपनाये हुए थी जिसे भाषाविद् श्लिष्टरूप कहते हैं। द्विवचन को हटा देने तथा कुछ विभक्तियों को कम कर देने पर भी अभी सुबन्त और तिङन्त के सैंकड़ों और हजारों रूप प्रचलित थे। दसों (विधि और आशीः मिलाकर11) लकारों, आत्मनेपद और परस्मैपद रूपों, णिजन्त, सन्नन्त, यङन्त, यङ् लुङन्त आदि स्वरूपों को उन्होंने मान्य रखा। अपभ्रंश ने इन मान्यताओं को बहुत कुछ मात्रा में ठुकरा दिया था। उसने श्लिष्टता से अश्लिष्टता की ओर बढ़ने की कोशिश की। उसने पुरानी परम्परा के शब्द रूपों तथा धातु रूपों की पारिपाटी को बहुत कुछ मात्रा में छोड़ देने का प्रयत्न किया। लकारों की विविधता को बहुत कुछ समाप्त भी कर दिया। प्रमुख रूप से 4 लकारों अर्थात लट्, लोट्, लृट् और कुछ क्षीण रूप में विधि लकार के रूपों को ग्रहण किया। भूतकाल के लिये उसने निष्ठा कृदन्त को ही मान्यता दी। यह श्लिष्टता से अश्लिष्टता की ओर बढ़ने का बड़ा भारी प्रयास था। यह भाषा के परिवर्तन में बड़ी भारी क्रान्ति थी। यह सब होते हुए भी अपभ्रंश के पुराने रूपों में, पुरानी श्लिष्ट पद्धति के बहुत कुछ रूप अब भी विराजमान थे। अपभ्रंश की ध्वनि प्रक्रिया में विशेष परिवर्तन जरूर हो रहा था, आत्मनेपद प्रायः समाप्त-सा हो रहा था। फिर भी यत्र-तत्र आत्मनेपद के रूप मिल ही जाया करते थे। यङन्त, यङ लुङन्त और सन्नन्त के रूप कहीं न कहीं दिख जाया करते थे। ऐसी. बहुत सी भाषायिक इकाइयाँ है जो कि पूर्ववर्ती अपभ्रंश को प्राकृत के समीप ला खड़ा करती हैं। इसी कारण संस्कृत से भी उसकी बहुत कुछ समता हो जाया करती है। उत्तरवर्ती अपभ्रंश बहुत कुछ सरलता की ओर झुक रही थी। इस समय तक भाषा में बहुत कुछ अश्लिष्टता आ गयी थी। विभक्ति रहित शब्द रूपों और धातु रूपों का प्रयोग होने लगा, इससे भाषा में बहुत अधिक सरलता आ गयी। यह नव्य भारतीय आर्यभाषा की ओर झुका हुआ है। परवर्ती अपभ्रंश के रूप हिन्दी के बहुत समीप है। हेमचन्द्र के
SR No.023030
Book TitleHemchandra Ke Apbhramsa Sutro Ki Prushthabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamanath Pandey
PublisherParammitra Prakashan
Publication Year1999
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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